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Asst. Professor (HoD)

Blog image DR. RAJESH KUMAR SINGH Shared publicly - May 10 2021 7:40PM

MA SEMESTER 3 CC8 MAURYAN SOCIETY


मौर्यकालीन सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक अवस्था
 
वर्ण व्यवस्था - अशोक के पांचवें शिलालेख के अनुसार मौर्यकालीन भारत में अनेक वर्ण थे। वर्ण की व्यवस्था यथावत थी और समाज ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र में बैटा हुआ था। इस समय वर्ण व्यवस्था में जटिलता आ गई थी। इसका आधार कर्म न होकर जन्म ही हो गया था। कोई व्यक्ति एक वर्ण से दूसरे वर्ण का सदस्य नहीं बन सकता था। वर्ण व्यवस्था की रक्षा करना राज्य का प्रमुख कर्तव्य था। उस समय वर्णाश्रम पर विशेष बल दिया जाता था। उस समय भी प्रत्येक व्यक्ति को ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रमों में व्यतीत करना पड़ता था। इस प्रकार, समाज का आकार वर्ण-व्यवस्था और वर्णाश्रम था इन चार वर्णों के अतिरिक्त उस समय कुछ अन्य व्यावसायिक वर्ग अथवा समूह भी थे, किंतु उनकी गणना चार वर्णों में कर ली जाती थी। मेगास्थनीज द्वारा वर्णित सात जातियों का उल्लेख हम पहले ही कर चुके हैं। ग्रीक लेखकों से हमें ज्ञात होता है कि कोई भी व्यक्ति अपनी जाति से बाहर विवाह नहीं कर सकता था अथवा अपनी जीविका छोड़कर किसी अन्य जीविका या शिल्प को नहीं अपना सकता था। बाह्य संपर्क से कुछ अंशों में जातीय नियम की कट्टरता को अवश्य ही धका लगा होगा और अंतरजातीय विवाह की प्रथा चली होगी। स्वयं मौर्यसम्राट् चंद्रगुप्त ने सेल्यूकस की लड़की से विवाह किया था। इस युग में वैश्य और शूद्र का भेद बहुत कुछ मिटता जा रहा था। कौटिल्य ने शूद्र को आर्य कहा है और इसे म्लेच्छ से भिन्न माना है। आर्य शुद्र को दास नहीं बनाया जा सकता था। वर्णसंकर जातियों में अंबष्ठ, निषाद, पारशव, रथकार, क्षता, वैदेहक, मागध सूत, पुल्लकस, वेण, चांडाल, श्वपाक इत्यादि थे। चांडाल के अतिरिक्त सभी वर्णसंकर जातियों को कौटिल्य ने शूद्र माना है। तंतुवाय (जुलाहा), रजक (धोबी), दर्जी, सोनार, लोहार, बढ़ई आदि जाति का रूप धारण कर चुके थे। इन सब का समावेश शुद्र वर्ग में अंतर्गत किया गया है। अशोक के शिलालेख में जो दास और कर्मकार वर्णित है, उन्हें भी शूद्रवर्ण के अंतर्गत ही रखा जाता है।
[7:38 pm, 10/05/2021] Golu Airtel: मेगास्थनीज के अनुसार, भारतीय सामाजिक जीवन सरल, सादा और सुव्यवस्थित था, किंतु जीवन बहुत था। जातियाँ एक-दूसरे से प्रेमभाव रखती थी और उनका एक-दूसरे पर अटूट विश्वास था। वे सामाजिक नियम का पालन करना अपना कर्तव्य मानती थीं। उनके आपसी झगड़े बहुत कम होते थे। किसानों का जीवन सादा था। विवाह-विवाह शास्त्रों के अनुसार होते थे और आठों प्रकार के विवाहों का प्रचलन था
 
अपनी आति में होता था। फिर भी, अंतरजातीय विवाह का उल्लेख उस समय के साहित्य में मिलता है।
 
कुछ जातियों में संगोत्रविवाह की प्रथा भी प्रचलित थी। साधारणत: एकविवाह का नियम था, परंतु बहुविवाह
 
वर्जित नहीं था। धनी वर्ग में 'नियोग' की प्रथा भी थी। राजा और सरदारों में बहुविवाह की प्रथा प्रचलित
 
थी। राजा के शरीर की रक्षा का भार स्त्रियों पर सौंपा गया था। ऐसी भी एक कहानी का उल्लेख मिलता
 
है, जिसके अनुसार एक स्त्री ने एक राजा को मार दिया और उसके उत्तराधिकारी ने उसे अपनी पत्नी बनाकर पारितोषिक दिया। स्त्रियों में प्रचलित परदा प्रथा का संकेत भी मिलता है। कौटिल्य में गणिकाध्यक्ष और अशोक के अभिलेख में 'स्त्री-अध्यक्ष महामात्र' का उल्लेख मिलता है। स्त्रियाँ अपने पतियों की ओर से धार्मिक कार्यों में भाग लेती थीं। स्त्रियों को अपने पतियों की संपत्ति पर अधिकार था। उनका कार्यक्षेत्र पुरुषों के कार्यक्षेत्र से मित्र था। वे गुप्तचर विभाग में भी काम करती थीं। कौटिल्य ने 'विषकन्या' का उल्लेख किया है। अर्थशास्त्र में सतीप्रथा का प्रमाण नहीं है, परंतु यूनानी लेखकों ने पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत में इस प्रथा को देखा था। स्त्री-पुरुष प्रेक्षाओं में भी भाग लेते थे। दास प्रथा दास प्रथा संस्था के रूप में विद्यमान थी। इसका वर्णन स्मृतियों और अभिलेखों में मिलता है। लोक लेखकों का विश्वास था कि भारत में दास प्रथा थी ही नहीं, परंतु हमें कौटिल्य के अर्थशास्त्र और अशोक के अभिलेखों में इसके स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं। दासों की खरीद-बिक्री भी होती थी। दान-प्रथा के अंतर्गत स्त्रियों का भी क्रय-विक्रय होता था। राजा के शरीर की रक्षा के लिए स्त्रियाँ खरीदी जाती थीं।
 
मौर्यकालीन अर्थव्यवस्था में दासों का महत्त्वपूर्ण योगदान था। त्रिपिटक की तुलना में कौटिल्य ने अधिक
 
विस्तार से दासों का उल्लेख किया है। कौटिल्य ने दास प्रथा की कानूनी वैधता को स्वीकार किया है। बौद्ध
 
ग्रंथों एवं कौटिल्य से यह स्पष्ट है कि वे संपत्ति का एक रूप थे।
 
भोजन भारतीय मितव्ययिता से रहते थे और अच्छे नियमों का पालन करते थे। उस समय चोरी का अभाव था और लोग झूठ नहीं बोलते थे। जीवन सीधा-सादा था। यज्ञ को छोड़कर लोग कभी मद्यपान नहीं करते थे। उनका भोजन प्रधानतः चावल था। मदिरा की प्रथा रही होगी इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि मांस और मंदिरों की दुकानों पर राज्य की ओर से नियंत्रण था। भोजन करने के तरीके के संबंध में मेगास्थनीज लिखता है, "जब भारतीय भोजन करने के लिए बैठते हैं तो उनके सामने एक तिपाई के आकार की मेज रख दी जाती है। उसके ऊपर एक सोने का प्याला रहता है, जिसमें सबसे पहले चावल डाले जाते हैं। उसके बाद अन्य पदार्थ आते हैं, जिन्हें भारतीय विधि के अनुसार तैयार किया जाता है।" कहना न होगा कि धनी और गरीब के बीच भोजन में बहुत बड़ा अंतर था।
 
आमोद-प्रमोद- अशोक के अभिलेखों में बिहार यात्रा का उल्लेख मिलता है, जिसका प्रमुख अंग मृगया (शिकार) होता था। मेगास्थनीज ने भी शिकार का उल्लेख किया है। विहार-यात्रा के अतिरिक्त समाज का भी उल्लेख मिलता है। समाजों में अनेक प्रकार के आमोद-प्रमोद होते थे। इनमें मनुष्य और पशु के मल्लयुद्ध प्रसिद्ध थे। हिंसात्मक होने के कारण अशोक ने इन्हें बन्द करा दिया था। कौटिल्य से ज्ञात होता है कि साधारणतः जनता में प्रेक्षाएँ (तमाशे) बड़ी लोकप्रिय होती थी और इनमें नट, नर्तक, गायक, वादक, मदारी, रस्सी पर नाचनेवाले, तरह-तरह की बोलियाँ बोलनेवाले आदि अपनी कला का प्रदर्शन कर दर्शकों का मनोरंजन करते थे। गाँव में शालाएँ होती थीं, जहाँ अन्य प्रकार के खेलकूद संगठित होते थे। राज्य की ओर से इन्हें लाइसेंस लेना पड़ता था। ब्रह्मा, पशुपति शिव और सरस्वती के सम्मान में भी समाज का आयोजन होता था। पतंजलि ने नाटकीय प्रदर्शनों का उल्लेख किया है। अशोक ने 'समाज' को बंद कर दिया।
 
एरियन के अनुसार, "चंद्रगुप्त के राजप्रासाद के उपवनों में पालतू मोर और तोते कल्लोल करते रहते हैं। यहाँ सर्वत्र सधन कुंज तथा हरे-भरे मैदान है। वृक्षों की डाले एक-दूसरे से गुथी हुई लगती हैं। कुछ वृक्ष मूलतःइस देश के है और कुछ बाहर से भी लाए गए हैं। इनके समन्वय से समूचे भूभाग का सौंदर्य बढ़ जाता को देखकर तो ऐसा लगता है, जैसे कि यह देश उन्हीं का है। कोई भी भारतीय इनका मांस नहीं खाता ये मनुष्य की बोली का अनुकरण कर सकते हैं। राजमहल के अंदर बड़े-बड़े सरोवर हैं, जिनमें मछलियाँ पाली जाती है।"
 
नैतिक स्तर–मेगास्थनीज ने भारतीय चरित्र एवं व्यक्तित्व की बड़ी प्रशंसा की है। भारतीय सत्य और गुण का आदर करते थे। आचरण में वे सरल और मितव्ययी थे। अपनी संपत्ति को वे बहुधा अरक्षित अवस्था में ही छोड़ जाते थे। वे न्यायालयों की शरण यदा-कदा लेते थे। भारतवासी पर मियाभाषण का आरोप नहीं लगाया जा सकता। वे सन के सपन बने हुए टुकड़ों पर पत्र लिखते थे। पेड़ों को छाल लिखने के काम आती थी। सत्य और गुण का आदर भारत में होता था।
 
सौंदर्य-प्रेम -भारतीय बारीकी और सुंदरता के प्रेमी थे। उनके वस्त्रों पर सोने का काम किया रहता था और वस्त्र मूल्यवान रत्रों से विभूषित रहते थे। वे लोग मलमल के बने फूलदार वस्त्र पहनते थे। सेवकगण उनके पीछे छाता लगाए चलते थे। धनी और दरिद्र के बीच वेशभूषा में भी फर्क था, जो तत्कालीन कलाओं में देखा जा सकता है।
 
आर्थिक स्थिति–प्राचीनकाल से ही भारत एक कृषिप्रधान देश रहा है और यहाँ कृषकों की संख्या हमेशा अधिक रही है। कृषक अपना सारा समय खेती में लगाते थे। कृषक समाज पवित्र और अवध्य माना जाता था। युद्ध के समय भी कृषक निर्विध रूप से अपना काम करते थे। ये लोग जनता की भलाई करनेवाले समझे जाते थे। किसान देहातों में रहते थे। कृषि के लिए सिंचाई की व्यवस्था थी। मेगास्थनीज लिखता है, "भारतवर्ष में अकाल कभी नहीं पड़ा है और खाद्य वस्तुओं को महंगाई भी साधारणतया कभी नहीं हुई है। खेती हल-बैल से होती थी। अर्थशास्त्र में सिंचाई के अनेक साधनों का उल्लेख है। इसे सेतुबंध कहा गया है। सौराष्ट्र को सुदर्शन झील इसी सेतुबंध का एक उदाहरण थी। राजकीय कृषि भूमि पर दास, फर्मकार और कैदियों द्वारा काम कराया जाता था। भूमि को उपजाऊ बनाने के लिए खाद का भी प्रयोग होता था। ग्रामीण क्षेत्रों में बाढ़, अग्निकांड और टिडियों के आक्रमण का डर बना रहता था। इसके लिए जनता को 'दार्शनिक' लोग ही अगाह कर दिया करते थे। अतिवृष्टि और अनावृष्टि से उत्पन्न परिस्थितियों का सामना करने के लिए बड़े-बड़े अन्नागार बनाए जाते थे। संकटकाल में राज्य की ओर से नागरिकों की बीज तथा भोजन से सहायता की जाती थी। जंगली जानवरों से भी खेती की रक्षा की जाती थी। खेतिहरों के लिए औजारों का निर्माण शिल्पकार करते थे, जो केवल करो से ही मुक्त नहीं थे, प्रत्युत राजकोष से सहायता भी पाते थे। इन सुविधाओं कारण बदले में उन्हें राज्य के निश्चित कार्य करने पड़ते थे। भूमि पर व्यक्तिगत अधिकार के भी प्रमाण मिलते हैं। कौटिल्य ने कास्तकार और भूस्वामी के बीच स्पष्ट भेद दिखाया है। जिस भूमि का स्वामी नहीं था, वह राजा की भूमि होती थी।


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