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Asst. Professor (HoD)

Blog image DR. RAJESH KUMAR SINGH Shared publicly - May 5 2021 5:33PM

BA SEMESTER 3 CC7 SUFISM


सूफी सम्प्रदाय (The Sufism) सल्तनत काल में इस्लाम धर्म में जो सबसे महत्वपूर्ण घटना घटी, वह थी सूफीवाद या सूफी संप्रदाय का उदय 'सूफी' शब्द की व्युत्पत्ति विवादास्पद है। आरंभ में अरब प्रदेश में 'सूफी' उन्हें कहा गया, जो 'सफ' (ऊनी वस्त्र) पहनते थे। बाद में शुद्ध एवं पवित्र आचरण एवं विचारवाले (सफा) सूफी कहलाए। कुछ विद्वान यह भी मानते हैं कि मदीना में मुहम्मद साहब द्वारा बनवाई गई मस्जिद के बाहर सफा (मक्का की एक पहाड़ी) पर जिन लोगों ने शरण ली एवं अल्लाह की आराधना में मग्न रहे, उन्हें ही सूफी कहा जाता है। सूफीवाद का विकास ईरान में हुआ। वहाँ से यह भारत भी आया। 13-14 वीं शताब्दी तक भारत में इस्लाम धर्म के साथ ही सूफी संप्रदाय भी व्यापक तौर पर स्थापित हो चुका था। सूफी दर्शन– सूफीवाद दार्शनिक सिद्धांत पर आधृत था। सूफीवाद ने इस्लामी कट्टरपन को त्याग दिया एवं धार्मिक रहस्यवाद को स्वीकार किया। सूफी इस्लाम धर्म के कर्मकांडों एवं कट्टरपंथी विचारों के विरोधी थे, फिर भी इस्लाम धर्म एवं कुरान की महत्ता को वे स्वीकार करते थे। सूफी संत एकेश्वरवाद में विश्वास करते थे। उनका मानना था कि "ईश्वर एक है, सभी कुछ ईश्वर में है, उनके बाहर कुछ नहीं है और सभी कुछ का त्याग कर प्रेम के द्वारा ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है।" वे ईश्वर को 'प्रियतमा' के समान मानते थे, जिनके लिए 'प्रेमी' अपना सब कुछ न्योछावर कर देता था। 'प्रियतमा' को आकृष्ट करने के लिए सूफियों ने नाच-गान और कव्वाली पर भी बल दिया। त्याग, प्रेम, भक्ति, उपासना और अहिंसा का उनके जीवन में प्रमुख स्थान था। वे भोग-विलास, कोलाहल, आडम्बर से दूर शांत एवं सादा जीवन व्यतीत करते थे। गुरु या पीर ईश्वर की प्राप्ति में सहायक था, अतः उसका बहुत अधिक महत्त्व था। सूफी धार्मिक पवित्रता पर अत्यधिक बल देते थे। सूफियों के मध्य भी अनेक सम्प्रदाय थे, जिनमें बाह्य रूप से कुछ अंतर था, परंतु आंतरिक तौर पर सभी धार्मिक पवित्रता में विश्वास रखते थे। सल्तनतकालीन प्रमुख सूफी संत- सूफी संप्रदाय के विकास के साथ ही भारत में अनेक सूफी संतों का प्रादुर्भाव हुआ। उनमें सूफी मत के विभिन्न संप्रदायों के संत सम्मिलित हैं। प्रमुख सूफी संतों में ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती, शेख निजामुद्दीन औलिया, बाबा फरीद इत्यादि का उल्लेख किया जा सकता है। ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती- ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती मूलतः मध्य एशिया के निवासी थे। मुहम्मद गोरी की सेना साथ ये 1192 ई० में भारत आए। भारत में 'चिश्ती सिलसिला' के संस्थापक वही थे। लाहौर और दिल्ली के पश्चात उन्होंने अजमेर को अपना केंद्र बनाया, जहाँ इनके असंख्य अनुयायी बन गए। निजामुद्दीन औलिया निजामुद्दीन औलिया गयासुद्दीन और मुहम्मद बिन तुगलक के समकालीन थे। अपनी गतिविधियों का केंद्र इन्होंने दिल्ली को ही बनाया। इन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता पर बल दिया एवं सामाजिक सुधार के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण कार्य किए। बाबा फरीद बाबा भी चिश्ती-परंपरा से ही संबद्ध थे। इन्होंने असंख्य पददलित और भ्रष्ट मनुष्यों को सच्चा मार्ग दिखाया। उनके विचारों को गुरुग्रंथसाहिद में भी स्थान मिला। इन प्रमुख संतों के अतिरिक्त सल्तनत-युग में अन्य कई प्रसिद्ध सूफी संत भी हुए; जैसे, नासिरुद्दीन चिराग-ए-दिल्ली, इत्यादि। इन सभी संतों ने मानव को सीधा, सादाच्या प्रेम और भक्ति का मार्गाया तथा सभी धर्मों के बीच समानता एवं समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया। "सूफी सिलसिले (सम्प्रदाय)– सूफीवादी अनेक सम्पदायों में बैठे हुए थे। आने में चौदह सूफी संप्रदायों का उल्लेख मिलता है। यह भी कहा जाता है कि प्रदाय लगभग 175 उप-संप्रदायों में विभक्त था; परंतु सूफी संप्रदाय मुख्यतः दो भागों में किया गया है-बा-शर [इस्लामी 'शरा' (कानून) को माननेवाले) तथा वे-शर (कानून से मुक्त) । वा-शर के अंतर्गत प्रमुख सिलसिले चिश्ती और सुहरवर्दी थे। चिश्ती सिलसिला -भारत में इस सिलसिले (परंपरा) का संस्थापक न चिस्ती को माना जाता है। इनके उत्तराधिकारियों- ख्वाजा बख्तियार काकी, बाबा फरीद निजामुद्दीन औलिया, हजरत अलाउद्दीन साबिर, नासिरुद्दीन चिराग-ए-दिल्ली ने उत्तरी भारत में इस संप्रदाय को लोकप्रिय बनाया। दक्षिण में शेख बुरहानहीन गरीब और गेसूदराज ने इसका। प्रचार किया। चिश्ती सूफियों ने सादा जीवन एवं संगीत को बहुत अधिक महत्व दिया। सीधी-सादी 'हिंदवी' भाषा में, संगीत सभाओं द्वारा वे जनमत को आकृष्ट करने में सफल हुए। सुहरबर्दी जिस समय चिश्ती सिलसिला का प्रभाव बढ़ रहा था, उसी समय सिंघ और मुलतान में सुहरवर्दी-संप्रदाय जोर पकड़ रहा था। इस मत के संस्थापक शहाबुद्दीन सुहरवद थे। अन्य प्रमुख संतों में विख्यात है हमीदुद्दीन नागौरी, बहाउद्दीन जकारिया, जलालुद्दीन तवरीजी, सैयद सुर्खपोश इत्यादि कालांतर में यह संप्रदाय गुजरात, बिहार और बंगाल में फैला। सुहरवर्दियों ने चिश्तियों की तरह घुमक्कड़ एवं फकड़ जीवन नहीं बिताया, बल्कि उन्होंने राज्य की सेवा भी स्वीकार की अनेक प्रमुख जगहों पर उन्होंने अपने केंद्र स्थापित किए। तुलनात्मक दृष्टि से चिश्ती सिलसिला सुहरवर्दी-सिलसिले की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली था। कादरी कादरी-सिलसिला के संस्थापक शेख अब्दुल कादिर जिलानी थे। इनका जन्म बगदाद में हुआ था। भारत में इस मत को प्रचलित करने का श्रेय शाह नियामत उल्ला और नासिरुद्दीन महमूद जिलानी को दिया जाता है। इस संप्रदाय का प्रभाव मुगल काल में अधिक बढ़ा। नक्शबंदी परंपरा भारत में इस संप्रदाय के प्रचारक ख्वाजा मुहम्मद बकी बिल्लाह 'बेरंग' थे। नक्शबंदियों ने इस्लामी कट्टरपन का विरोध किया एवं प्राणिमात्र की एकता पर बल दिया। इस सम्प्रदाय के सबसे प्रमुख संत शेख अहमद सरहिंदी थे। यह सिलसिला भी 15वीं शताब्दी के पश्चात ही प्रभावशाली बन सका। सूफी मत में पीर और मुर्शीद का महत्त्व- सूफी संतों के केंद्र विभिन्न खानकाह थे। इनके केंद्र बिंदू पीर या मुर्शीद थे। पीरों को अलौकिक शक्ति का प्रतीक माना जाता था। ऐसा माना जाता था कि पीर खुदा के निकट रहने से सब कुछ सहजता से प्राप्त कर सकते हैं। इसलिए बड़ी संख्या में मुर्शीद खानकाहों में उपस्थित होते थे। कव्वाली और कीर्तन खानकाहों की दिनचर्या में सम्मिलित हो गए जहाँ बड़ी संख्या में हिंदू-मुसलमान समान रूप से एकत्रित होते थे। पीर ही विभिन्न सूफी सिलसिलों के संस्थापक होते थे अथवा उत्तराधिकारी नियुक्त किए जाते थे। नए चेलों की भर्ती करवाने एवं उन्हें दीक्षित करवाने का कार्य भी पीर ही करते थे। सूफी सिलसिलों की एक विशेषता यह थी कि उनमें आपसी प्रतिद्वंद्विता और वैमनस्य की भावना नहीं थी। वे परस्पर आदर और समझौते की नीति का अनुसरण करते थे। सूफी मत का भक्ति आंदोलन पर प्रभाव- भक्ति आंदोलन को सूफियों ने कहाँ तक प्रभावित किया यह एक विवादास्पद प्रश्न है। ताराचंद और यूसुफ हुसैन जैसे अनेक इतिहासकारों की मान्यता है कि शंकराचार्य का अद्वैतवाद और रामानंद की भक्ति पर इस्लाम का गहरा प्रभाव पड़ा। इसके विपरीत अन्य इतिहासकारों का मानना है कि 12 वीं शताब्दी के पूर्व इस्लाम और हिंदू संस्कृतियों में इतना घनिष्ठ संपर्क नहीं था कि वे एक दूसरे को प्रभावित कर सकें। 13वीं शताब्दी के बाद ही भारत में इस्लाम का व्यापक प्रभाव पड़ा; तथापि यह कहना कठिन है कि इस्लाम और सूफियों का भक्ति आंदोलन पर कितना गहरा प्रभाव पड़ा। सूफियों और भक्ति आंदोलन के संतों के दर्शन में, जैसे, "गुरु का महत्त्व नाम स्मरण, प्रार्थना, ईश्वर के प्रति प्रेम व्याकुलता एवं विरह की अवस्थाएँ संसार की क्षणभंगुरता, जीवन की सरलता, सच्ची साधना, मानवता से प्रेम, ईश्वर की एकता तथा व्यापकता" प्याप्त समानताएँ दिखलाई देती है। यह कहना कठिन है कि इनमें से किसने क्या और कितना लिया। वस्तुतः सूफियों और निर्गुण संतों की आस्था धर्म तथा समाज के साधनात्मक रहस्यवाद में रही है।" अजीज अहमद के इस इस्लाम का भक्ति आंदोलन पर व्यापक प्रभाव पड़ा है। भले ही कबीर और नानक जैसे महान संतों के विचारों में सूफी विचारधारा का हमें कई बार मिश्रण दिखाई पड़ता हो परंतु यह मानना कठिन होगा कि भारतवर्ष में रहस्यवाद और भक्ति-भावना का विकास सूफी साधना के द्वारा हुआ है।" कर्मकांडों में न रहकर विचार को स्वीकार करना कठिन है कि सुनीता पुरी का विचार है कि एवं मध्यकालीन भक्ति आंदोलन का जो महत्व है, वही महत्व संतों ने इस्लाम धर्म को गतिशील एवं उदार बनाकर हिंदुओं और मुसलमानों में समानरूप से लोकप्रिय बन अनुभव कर रहा था तब सूफी खानकाह ने सामाजिक का उन्माद पैदा करने का काम किया।" सूफियों की देने हिंदू धर्म में इस्लाम धर्म में सुफियों का है। सुफी हिंदू-मुस्लिम एकता को प्रोत्साहित किया। जनसाधारण से संपर्क रखने, उनके कष्टों को समझने एवं दूर करने की प्रवृत्ति से सुफी संत गए। उन्होंने अपने विचारों एवं आचरण से समाज में प्रविष्ट अनेक बुराइयों को दूर करने का प्रयास किया। इन लोगों ने साहित्य, भाषा, दर्शन और नृत्य-संगीत के विकास को भी प्रभावित किया। प्रो० गिब के अनुसार "सूफीवाद ने अपनी ओर उन तत्त्वों को आकृष्ट किया जो सामाजिक और सांस्कृतिक क्रांति के वाहक के रूप में उभरकर सामने आए। तुर्की आधिपत्य के काल में जब देश का जनजीवन घुटन का संदेश फैलाने एवं सुधारवादी राजनीति धार्मिक उदारता का प्रसार- भारत में सूफियों का एक महत्त्वपूर्ण योगदान धार्मिक उदारता की भावना को बढ़ाने में था। उनके प्रयासों से उत्तरी भारत में प्रचलित अनेक हिंदू परंपराओं को इस्लाम में स्थान मिला। हिंदू धर्म और दर्शन भी सूफीवाद से प्रभावित हुए बिना नहीं र सका। धार्मिक उदारता ने सामाजिक एकता एवं -मिलाप को बढ़ावा दिया। निम्न वर्गों को समर्थन- अधिकांश सूफी संत शासक वर्ग से अपने को अलग रखते थे। इसके विपरीत वे समाज के शोषित वर्गों से सहानुभूति रखते थे। उन लोगों ने समाज के सभी वर्गों एवं धर्मों के लोगों के बीच समानता एवं बंधुत्व की भावना का प्रचार किया। सूफियों द्वारा दिखलाए गए सहिष्णुता की नीति को बाद के उदार शासकों ने अपना लिया। समाज सुधार के कार्य-मध्यकाल में शहरीकरण की प्रक्रिया के कारण अनेक सामाजिक बुराइयाँ जमाखोरी, कालाबाजारी, शराबखोरी, वेश्यावृत्ति, दास प्रथा इत्यादि जड़ जमा चुकी थीं। सूफियों ने अपने प्रचारों तथा खानकाहों द्वारा इन बुराइयों की भर्त्सना की और मनुष्य को इनसे बचने का निर्देश दिया। इस प्रकार सूफी संतों ने ज्वलंत सामाजिक समस्याओं की ओर अपना ध्यान देकर समाज सुधार का कार्य किया। भाषा और साहित्य का विकास सूफी संतों के प्रयास से उर्दू भाषा का जन्म एवं विकास संपर्क भाषा के रूप में हुआ। यह अरबी, फारसी और हिंदी के सम्मिश्रण से बनी। सूफियों ने उर्दू में अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की। उर्दू के अतिरिक्त अन्य भाषाओं में भी, जैसे पंजाबी, गुजराती, अवधी, ब्रजभाषा में अनेक रचनाएँ हुई। इससे क्षेत्रीय भाषाओं एवं साहित्य का समुचित विकास हुआ। संगीत का विकास सूफी संतों के प्रभाव से गीत-संगीत का पर्याप्त विकास हुआ। खानकाहों में नियमित रूप से संगीत सभाओं का आयोजन हुआ करता था। इन सभाओं के माध्यम से ईरानी राग एवं रागिनियाँ भारत आई और भारतीय संगीत पर उनका प्रभाव पड़ा। अमीर खुसरो और मोहम्मद गौस ग्वालियरी ने संगीत के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। कव्वाली गायन की परंपरा का भी विकास हुआ। इस्लाम को व्यापक आधार प्रदान करना - भारत में इस्लाम धर्म के में सूफियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निबाही। इन्होंने इस्लाम धर्म को एक नए रूप में रखा जिसमें प्रचार-प्रसार शासकों की कट्टरता एवं धर्मांधता नहीं थी। इस्लाम के उज्ज्वल गुणों का प्रचार कर इसे भारत में व्यापक बनाने का कार्य सूफियों ने किया। इस प्रकार भक्ति आंदोलन के संतों के ही समान सूफियों ने भी तत्कालीन धार्मिक-सामाजिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया।



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