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Asst. Professor (HoD)

Blog image DR. RAJESH KUMAR SINGH Shared publicly - Jun 20 2021 6:11PM

1830 KI KRANTI SEMESTER 5 PAPER 501 C11


फ्रांस में 1830 ई० की क्रान्ति कारण महत्त्व प्रभाव:
 
(The French Revolution of 1830: Causes: Significance : Effects): 1830 ई० की क्रान्ति के कारण (Causes of The Revolution of 1830) :
 
नेपोलियन के पतन के बाद फ्रांस में पुनः वियना कांग्रेस के द्वारा बूबों राजवंश का शासन स्थापित किया गया था। 2 जून, 1814 ई० को तूई अठारहवाँ फ्रांस की गद्दी पर बैठा। वह इस बात को भलीभाँति जानता था कि वह विजेताओं की सहायता से गद्दी पर बैठा था। जनता की सदिच्छा उसे प्राप्त नहीं थी। यह समझता था कि क्रान्तिजनित नवीन प्रवृत्तियों को दबाना अब सम्भव नहीं था। चूँकि समय बदल चुका था। निरंकुश शासन, सामन्ती पद्धति तथा चर्च के विशेषाधिकारों को मान्यता देना अब कठिन था। अतएव सूई अठारहयों ने समय की आवश्यकताओं के अनुसार शासन करना चाहा। उसने जनता की सदिच्छा प्राप्त करने के लिए समझौतावादी नीति अपनायी। गद्दी पर बैठते ही उसने एक सांविधानिक घोषणा के पत्र निकाला जिसके द्वारा क्रान्ति द्वारा प्रतिष्ठित सभी सिद्धान्तों को मान्यता दी गयी। फ्रांस में वैध राजसत्तावाद, उत्तरदायी मंत्रिमण्डल तथा द्विसदनात्मक विधान सभा की व्यवस्था की गयी। बहुत से लोगों को मतदान का अधिकार मिला। मानव अधिकार के घोषणा-पत्र को स्वीकार किया गया और कानून के समक्ष सभी व्यक्तियों की समानता स्वीकार की गयी। सभी को धार्मिक स्वतंत्रता तथा भाषण, लेखन, प्रकाशन तथा मुद्रण की स्वतंत्रता की घोषणा की गयी। सम्पत्ति के अधिकार को मान्यता दी गयी। इस प्रकार बूर्वी राजवंश की पुनः स्थापना के बाद फ्रांस में एक उदार संविधान तथा लोकप्रिय शासन की स्थापना की गयी।
 
लेकिन लूई अठारहवें के सारे प्रयत्नों को प्रतिक्रियावादी निष्फल बनाने में लगे हुए थे। नेपोलियन के पतन के बाद में बहुत से कुलीन और पादरी लौट आये थे जो क्रान्ति के कट्टर शत्रु, और पुरातन व्यवस्था के समर्थक थे। उनका नेता आर्तुआ का काउन्ट था। शीघ्र ही फ्रांस के शासन यंत्र पर प्रतिक्रियावदियों का अधिकार हो गया और वे क्रान्ति के समर्थकों का दमन करने लगे। कट्टर राजसत्तावादियों की दमनकारी नीति के कारण फ्रांस में पुनः क्रान्ति की आग भड़कने की आशंका व्यक्त की जाने लगी। इस विपत्ति से फ्रांस को बचाने के लिए व्यवस्थापिका सभा को भंग कर दिया गया और पुनः निर्वाचन की घोषणा कर दी गयी। निर्वाचन में उदार राजसत्तावादियों को सफलता मिली। फ्रांस में इनका शासन प्रारम्भ हुआ। इस अवधि में व्यापार, उद्योग धन्धे तथा कला कौशल की प्रगति हुई।
 
फ्रांस में प्रतिक्रियावाद का जबर्दस्त बोलबाला था। तूई अठारहवाँ वृद्धावस्था के कारण राज-काज सम्भालने में असमर्थ या। अतः उसने प्रशासन सम्बन्धी सारा काम आर्तुआ के काउन्ट के हाथ में सौंप दिया। इस प्रकार पुनः प्रतिक्रियावादियों के हाथ में राजसत्ता आ अयी। फ्रांस में प्रतिक्रिया पूर्णरूप से प्रारम्भ हुई। मताधिकार को संकुचित कर दिया गया। प्रतिक्रियावादी कानून के द्वारा सुधार कार्य को स्थगित कर दिया गया। व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा अधिकारों को समाप्त कर दिया गया । प्रतिक्रिया के इस रूप के कारण फ्रांस की जनता में असन्तोष की अग्नि सुलगने लगी। प्रतिक्रिया के विरुद्ध गुप्त क्रान्तिकारी समितियों का संगठन किया गया। फ्रांस पुनः एक बार क्रान्ति की उपेट में आनेवाला था लेकिन हुई अठारहवें के राज्यकाल में विशेष गड़बड़ी नहीं हुई। 1820 ई० में उसकी मृत्यु हो गयी और उसकी मृत्यु के साथ ही फ्रांस की राजनीतिक स्थिति पुनः गम्भीर हो गयी।
 
नूई अटारहवें की मृत्यु के बाद शासन की बागडोर आलुआ के काउन्ट के हाथ में आया जो चार्ल्स दसयों के नाम से फ्रांस की गद्दी पर बैठा। उसने कठोर प्रतिक्रियावादी शासन प्रारम्भ किया और उसकी प्रतिक्रियावादी नीति के कारण ही 1830 ई० में एक बार फिर फ्रांस में क्रान्ति की आग भड़क उठी। सूई अठारहवीं क्रान्ति-विरोधी होते हुए भी समय के साथ समझौता करना जानता था लेकिन उसके उत्तराधिकारी में यह गुण नहीं था। चार्ल्स दसवाँ देवी अधिकार सिद्धान्त में विश्वास लेण्ड के राजा की करता था और फ्रांस में पुरातन व्यवस्था को फिर से कायम करना चाहता था। वह कहा करता था, " तरह शासन करने की अपेक्षा लकड़हारा बनना बेहतर है।" उसने उदारवादियों का दमन करना शुरू किया। कुलीनों को विशेषाधिकार दिये गये और उन्हें उच्च पदों पर नियुक्त किया गया। पादरियों तथा चर्च को विशेषाधिकार फिर से मिला। पादरियों का महत्त्व इतना अधिक बढ़ गया था कि लगता था कि फ्रांस में "पादरियों का, पादरियों द्वारा और पादरियों के लिए शासन है।" सभी प्रकार की स्वतंत्रताओं पर कठोर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। 1827 ई० में व्यवस्थापिका सभा को भंग कर दिया गया। इस प्रकार प्रतिक्रिया राज्य कायम करने में चार्ल्स ने मेटरनिख को भी मात कर दिया।
 
चार्ल्स के इस निरंकुश स्वेच्छाचारी शासन के विरुद्ध फ्रांस में क्रान्तिकारियों का प्रभाव बढ़ने लगा। ऐसा प्रतीत होता या कि फ्रांस में एक बार फिर क्रान्ति होगी। 1827 ई० में राष्ट्रीय प्रतिनिधि सभा का पुनः चुनाव हुआ लेकिन कट्टर राजसत्तावादी पराजित हुए। राजसत्तावादियों को 115 स्थान और उदारवादियों को 428 स्थान प्राप्त हुए। सभा को दो बार और मंग किया गया और निर्वाचन हुआ लेकिन स्थिति ज्यों की त्यों बनी रही। अतः चार्ल्स ने अवैधानिक तरीकों से प्रतिनिधि सभा - के विरोध का अन्त करने का निश्चय किया। उसने पोलिन्याक नामक एक कट्टर प्रतिक्रियावादी को अपना प्रधानमंत्री नियुक्त किया। जुलाई, 1830 ई० में पोलिन्याक ने एक अध्यादेश जारी करके चार दमनकारी कानून लागू किये जिसके अनुसार (i) प्रेस की स्वतंत्रता समाप्त कर दी गयी । (ii) नव निर्वाचित प्रतिनिधि सभा भंग कर दी गयी (1) मताधिकार को इतना संकुचित कर दिया गया कि 75 प्रतिशत नागरिक इस अधिकार से वंचित हो गये, (iv) सितंबर में निर्वाचन कराने को घोषणा की गयी।क्षेत्र में यूरोप के अन्य देशों से काफी पीछे रह गया। अपनी प्रतिक्रियावादी नीति से मेटरनिख निरंकुश राजतंत्र की अवश्य ही रक्षा कर सका और लगभग तीस वर्षों तक यूरोप में अधिकांश राज्यों में निरंकुश व्यवस्था कायम रही किन्तु पुरातन व्यवस्था के समर्थक सभ्यता के किसी अन्य क्षेत्र में प्रगति नहीं कर सके। ये केवल नवीन विचारधारा के दमन करने में लगे रहे, जिसका प्रतिनिधित्व मेटरनिख कर रहा था। नवीन विचारधारा का दमन करने के लिए षड्यंत्रों का सहारा लेना नेटरनिख की कूटनीति का मुख्य अंग था। सच तो यह है कि उसने भूल से षड्यंत्र को ही राजनीति समझ लिया था। यदि हम इटली और जर्मनी के प्रति मेटरनिख की नीति का विश्लेषण करें तो यह बात स्वतः स्पष्ट हो जाती है। रूस का जार अलेक्सान्द्र प्रथम ने तो उसे 'झूटा राजनीतिज्ञ' तक कह डाला और तैतरों ने उसे "सत्य और सम्मान की उपेक्षा करके प्रत्येक क्षण अपने उद्देश्यों एवं कार्यविधि को बदलनेवाला अबसरबादी" कहा था। इतिहासकार सी० डी० हेजन ने उसे निरा' षड्यंत्रकारी, अवसरवादी और दिखावटी व्यक्ति बतलाया है। उदारवादियों का दृष्टि में वह प्रजा की आवश्यकताओं का कट्टर शत्रु या मेटरनिख के सम्बन्ध में इन सभी कथनों में सच्चाई की मात्रा सबसे अधिक है क्योंकि उसकी नीति ही इन कथनों का प्रवत प्रमाण है। वस्तुतः उसकी नीति निषेधात्मक और अवसरवादी थी। उसकी नीति में उच्च रचनात्मक आदर्शों को ढूंढना गलत होगा । उसकी नीति भी अन्ततः कारगर और स्थायी सिद्धान्त नहीं बन सकी क्योंकि वह समय के प्रवाह के साथ अनुपयुक्त सिद्ध हो चुकी थी।
 
यों तो मैटरनिख की नीति की घोर निन्दा की जाती है लेकिन उसकी नीति का मूल्यांकन करते समय हमें परिस्थितियों का भी ध्यान रखना चाहिए। कुछ सीमा तक मेटरनिख की नीति उचित और न्यायसंगत थी। उस समय यूरोप के देश लगातार युद्ध से थक चुके थे और शान्ति के लिए लालायित थे। उसकी सफलता का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि यूरोप में चालीस वर्षों तक शान्ति बनी रही। इसी कारण उसने प्रतिक्रियावादी नीति का अनुसरण कर 'यथास्थिति' को कायम रखने का प्रयास किया। केवल इसी आधार पर उसकी नीति को न्यायसंगत कहा जा सकता है। जिस साम्राज्य का वह प्रधानमंत्री था, वहाँ अनेक जातियों के लोग निवास करते थे। अगर राष्ट्रीयता को बढ़ावा दिया जाता तो आस्ट्रिया के साम्राज्य का पतन अवश्यम्भावी था क्योंकि आस्ट्रिया का साम्राज्य बेमेल राज्यों का जमघट था मैटरनिख अपने देश के हितों की रक्षा करना अपना पुनीत कर्तव्य समझता था। इसलिए साम्राज्य की सुरक्षा के लिए उसने आस्ट्रिया में राष्ट्रवादी विचारधारा को प्रविष्ट न होने दिया तथा दूसरे देशों में भी राष्ट्रीय आन्दोलन का विरोध किया। इसीलिए उसने प्रयत्न किया कि यूरोप में यथास्थिति कायम रहे तथा समान विचारधारा बाते शासकों का एक अन्तरराष्ट्रीय संघ हो । तात्कालिक परिस्थितियों में 'यथास्थिति को कायम रखना उसके लिए एक आवश्यकता' बन चुकी थी। यदि उस परिस्थिति में मैटरनिख की जगह कोई अन्य राजनीतिज्ञ होता तो वह भी वहीं करता। एक इतिहासकार ने उसकी नीति की समीक्षा करते हुए कहा है, "उसकी अवसरवादी तथा प्रतिक्रियावादी नीति के पीछे एक रक्षात्मक सिद्धान्त छिपा हुआ था। मेटरनिख यूरोप पर अपना प्रभाव स्थापित करना चाहता था कि कहीं यूरोप का राजनीतिक सन्तुलन आस्ट्रिया के साम्राज्य को भंग न कर दे।" मेटरनिख का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य यूरोप में शान्ति स्थापित करना माना जाता है, जिसकी नेपोलियन युद्धों के बाद यूरोप में सबसे अधिक आवश्यकता थी। प्रोफेसर लिप्सन का कहना है कि अपने दीर्घकाल में उसने यूरोप की शान्ति बनाये रखने की पूरी कोशिश की: नेपोलियन के युद्धों में लहूलुहान यूरोप को ऐसा विश्राम और शन्ति प्रदान को जिसकी बड़ी आवश्यकता थी। इसी तथ्य को एलसिन फिलिप्स ने यो व्यक्त किया है, "दबी एवं बकी हुई पीढ़ी के लिए वह आवश्यक व्यक्ति था। यह उसका दुर्भाग्य था कि जब उसकी उपयोगिता समाप्त हो चुकी थी, उसके बाद भी वह जीवित रहा।" मेटरनिख की सबसे बड़ी दुर्बलता यह थी कि उसने 'क्रान्ति एवं स्वेच्छाचारी शासन इन दोनों प्रणातियों के बीच का कोई मार्ग खोजने का प्रयत्न नहीं किया। सर लीविस नेभियर का कहना है कि मेटरनिख वास्तव में वैसा प्रतिक्रियावादी नहीं था जैसा कि उसे सामान्यतः समझा जाता रहा है। यह इतना बुद्धिमान, सतर्क और सन्तुलित था कि वह पूर्ण रूप से प्रतिक्रियावादी नहीं हो सकता था। यूरोप में क्रान्तियों का दौर :
 
(Revolutions in Europe):
 
1815 ई० में मित्रराष्ट्रों ने बियना में एक ऐसी व्यवस्था स्थापित की थी और कुछ ऐसे निर्णय लिये थे जिससे लगता या कि कुछ वर्षों तक यूरोप में शान्ति बनी रहेगी और परिवर्तन को धारा अवरुद्ध हो जायगी। विजेताओं के चतुर्मुखी संगठन ने सम्मेलनों और हस्तक्षेप की नीति के द्वारा 'यथास्थिति' को बनाए रखने एवं विरोधी तत्वों को कुचलने का प्रयास किया या स्पेन, नेपुल्स तथा यूरोप के अन्य देशों में जन-आन्दोलन को निर्दयता से कुचला गया और निरंकुश एकतंत्रीय पुरातन व्यवस्था पुनः लागू कर दी गई थी। मेटरनिख और उसके सहयोगियों ने सोचा था कि सम्पूर्ण यूरोप उनके नियंत्रण में है और अब अपने हितों की रक्षा की चिन्ता से निश्चित हो सकते हैं। किन्तु यह उनका भ्रम था और प्रेम की दीवार शीघ्र ही टूट गई। 1830ई० में फ्रांस सहित यूरोप के अनेक देशों में प्रतिक्रियावादी शासन व्यवस्था के विरोध में क्रान्ति की मुख भभक उठी। मैटरनिख जो अभी तक प्रतिक्रियावाद और पुरातन व्यवस्था का मसीहा बना हुआ था अपने स्थप्नों को चकनाचूर होते देखा ।[6:10 PM, 6/20/2021] Pratyush Raj: पोलिन्याक का यह कार्य राजशक्ति का बड़ा ही अहित किया। प्रजातंत्रवादियों तथा स्वतंत्रता-प्रेमियों के समक्ष अन क्रान्ति के अतिरिक्त कोई दूसरा मार्ग नहीं रहा। क्रान्ति के नेताओं ने सशस्त्र क्रान्ति के लिए जनता का आह्वान किया और शीघ्र ही फ्रांस में विद्रोह की अग्नि भड़क उठी। विद्रोह में विद्यार्थी, अवकाशप्राप्त सैनिक, मजदूर और मध्यम वर्ग शामिल थे । क्रान्ति का नेतृत्व उदारवादी दल ने किया। 25 जुलाई, 1830 ई० को रातभर पेरिस क्रान्ति की नारों से गूंजता रहा। कुलीन विद्रोहियों के सामने टिक न सके। क्रान्तिकारियों का नेतृत्व वयोवृद्ध नेता सफायते कर रहा था। सेना ने भी ने क्रान्तिकारियों का साथ दिया। चार्ल्स को पेरिस छोड़कर भागना पड़ा और क्रान्ति सफल हुई। क्रान्तिकारियों के सामने अब यह प्रश्न या कि फ्रांस में शासन व्यवस्था का स्वरूप क्या हो ? इस प्रश्न को लेकर वैध राजसत्तावादी और गणतंत्रवादियों के बीच भयंकर मतभेद शुरू हुआ। लेकिन लफायते की मध्यस्थता से यह मतभेद दूर हुआ। 9 अगस्त, 1830 ई० को लूई फिलिप ने संविधान का पालन करने और वैध राजसत्ता के सिद्धान्त के आधार पर शासन करने की शपथ लेकर फ्रांस का राजमुकुट धारण किया। उसका राज्याभिषेक 'फ्रांसीसी जनता के राजा" के नाम से हुआ। राजा के दैवी अधिकार सिद्धान्त का अन्त कर दिया गया और निरंकुशता के स्थान पर फ्रांस में पुनः जनता की प्रभुता के सिद्धान्त को लागू किया गया ।
 
क्रान्ति का महत्त्व (Significance of the Revolution): 1830 ई० की जुलाई क्रान्ति न केवल फ्रांस के इतिहास में ही बल्कि यूरोप के इतिहास में भी एक महत्त्वपूर्ण घटना मानी जाती है। ऊपर से देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि इस क्रान्ति ने फ्रांस में कोई महत्त्वपूर्ण परिवर्त्तन नहीं किया। जिस उद्देश्य से गणतंत्रवादियों ने क्रान्ति का आयोजन किया था, उसकी नहीं हो सकी। असल लाभ तो मध्यम वर्ग और वैधानिक राजसत्तावादियों को हुआ। बुब वंश के स्थान पर अब औरलियन्स वंश का शासन शुरू हुआ। एक राजवंश का तो अन्त हुआ लेकिन राजतंत्र की सत्ता कायम ही रही। फिर भी हमें तो यह मानना ही पड़ेगा कि नई फिलिप फ्रांस का शासक अपने दैवी अधिकार से नहीं बना या बल्कि जनता के प्रतिनिधियों ने उसे चुना था। अतः इस दृष्टिकोण से 1830 ई० क्रान्ति जनतांत्रिक भावनाओं की विजय एवं सम्राट की निरंकुशता और दैवी अधिकार सिद्धान्त की पराजय मानी जा सकती है।
 
1830 ई० की जुलाई-कान्ति एक प्रकार से 1789 ई० की राज्यक्रान्ति की पूरक थी। 1789 ई० की राज्यक्रान्ति ने समानता, स्वतंत्रता और बन्धुत्य का नारा लगाया था और फ्रांस में राजतंत्र का अन्त कर गणतंत्र की स्थापना की थी। लेकिन बाद में नेपोलियन और उसके पतन के बाद प्रतिक्रियावादियों ने क्रान्ति के अन्य आदर्शों को मिटा दिया। परन्तु 1830) ई० की क्रान्ति ने निरंकुश राजतंत्र का अन्त कर वैधानिक राजतंत्र की स्थापना की। कुलीनों तथा पादरियों को विशेषाधिकार से वंचित कर दिया गया। राजा को अब अध्यादेश जारी करने का अधिकार नहीं रहा। प्रेस पर से पाबन्दियाँ हटा ली गईं, लोगों को धार्मिक स्वतंत्रता मिली और नये कानूनों को प्रस्तावित करने का अधिकार व्यवस्थापिका को दिया गया। इसके फलस्वरूप समानता, स्वतंत्रता, धर्मनिरपेक्षता तथा वैधानिक शासन की नींव सुदृद्ध हुई।
 
ऐसा कहना कि 1830 ई० की क्रान्ति कोई महत्त्वपूर्ण घटना नहीं थी, गलत होगा । यह ठीक है कि इसके द्वारा जो वैधानिक परिवर्तन किया गया, वह नगण्य था। लेकिन इसका मतलब यह नहीं होता कि यह बिल्कुल ही महत्वहीन क्रान्ति थी। इसकी तुलना हम इंगलैण्ड के 1688 ई० की गौरवपूर्ण क्रान्ति से कर सकते हैं। इंगलैण्ड और फ्रांस में राजा के दैवी अधिकार सिद्धान्त का अन्त कर लोकाधिकार सिद्धान्तों को स्थापना की गयी थी। जनता ने वियना कांग्रेस द्वारा प्रतिपादित न्यायता के सिद्धान्त (Principle of Legitimacy) को अस्वीकार कर दिया। इस सिद्धान्त के फलस्वरूप स्वतंत्रता, समानता, धर्मनिरपेक्षता, वैधानिक शासन आदि क्रान्तिकारी भावनाओं को आगे बढ़ाया गया। इस प्रकार जुलाई की क्रान्ति ने कोई नया सिद्धान्त प्रतिपादित नहीं किया, बल्कि पुराने सिद्धान्तों को ही नया रूप देकर जनता के लिए सुरक्षित कर दिया। अतएव प्रो० लिप्सन ने ठीक ही कहा है कि 1830 ई० की क्रान्ति ने उन कामों को पूरा कर दिया जो 1789 ई० की क्रांन्ति के द्वारा अलरा छोड़ दिया गया था।


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