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Blog image DR. ABHA JHA Shared publicly - May 25 2020 6:33PM

शब्द और अर्थ के बीच सम्बन्ध ( नोट्स )


                                                              शब्द और अर्थ का संबंध 

 

                                                                                                            डॉ आभा  झा 

                                                           स्नातकोत्तर दर्शनशास्त्र विभाग , डी एस पी एम यू ,राँची

 

शब्द :

    सामान्यतः शब्द पद के अनेक प्रकार के अर्थ होते हैं । शब्द विस्तृत अर्थ में ध्वनि है । जैसे ढोलक की थाप , घंटी कीआवाज , ट्रेन की छुक छुक इत्यादि । यहां शब्द से हम मात्र ध्वनि समझते हैं । इसे ध्वन्यात्मक शब्द कहते हैं । लेकिन जब ध्वनि के साथ वर्ण भी सुनाई पड़ता है तो उसे वर्णात्मक शब्द कहते हैं | जैसे क ,ख,ग इत्यादि|ये दो प्रकार के होते हैं- सार्थक और निरर्थक| जिस शब्द का कुछ अर्थ हो वह सार्थक कहलाता है और जिस शब्द का कोई अर्थ नहीं होता उसे निरर्थक कहते हैं|

दूसरे अर्थ में शब्द वह है जिससे किसी वस्तु का निर्देश या संकेत होता है जैसे-' घट' शब्द घड़ा नामक वस्तु के बारे में संकेत करता है । यह सार्थक वर्ण|त्मक शब्द कहलाता है जिनमें वस्तुओं को सूचित करने की शक्ति होती है । शब्द का तीसरा अर्थ आप्त व़ाक्य या आप्त कथन को कहते हैं जैसे- ऋषि मुनियों के कथन ।

भारतीय भाषा विश्लेषण में शब्द का तात्पर्य वर्ण|त्मक शब्द से ही लिया जाता है ,जो सार्थक हो| न्याय दर्शन में आप्त वचन को ही शब्द कहा गया है । भारतीय भाषा विश्लेषण के संदर्भ में शब्द का तात्पर्य पद और वाक्य है। अर्थात शब्द केवल शब्द ही नहीं है संपूर्ण वाक्य भी है|

अर्थ :

सामान्य वर्णों का समूह पद या शब्द कहलाता है| किसी शब्द या पद में निहित शक्ति अर्थ कहलाती है. प्रत्येक वर्ण समुदाय में शक्ति नहीं नहीं होती है. जैसे -टघ,यगा , इत्यादि. इन वर्ण समुदाय या शब्दों का कोई अर्थ नहीं किंतु गाय ,घटआदि शब्द अर्थवान हैं . शब्द वही होता है जिसमें अर्थ अभिव्यक्त करने की शक्ति निहित होती है . इस प्रकार शब्द और अर्थ के संबंधों का ज्ञान शाब्दबोध कहलाता है.

शब्द और अर्थ में संबंध :

शब्द और अर्थ (वस्तु) में कोई सम्बन्ध है अथवा नहीं ,इस विषय में भारतीय वैयाकरण तथा दार्शनिकों में पर्याप्त मतभेद हैं . भारतीय दर्शन के विभिन्न संप्रदायों में शब्द और अर्थ के संबंध में अलग-अलग मत है.

न्याय मत :

प्राचीन न्याय दर्शन के अनुसार शब्द और अर्थ का संबंध ईश्वर की इच्छा पर निर्भर है. शब्द में निहित मूल शक्ति या वृत्ति अजानिक संकेत में निहित है.अजानिक संकेत शब्द का प्राकृतिक अर्थ है . प्राचीन नैयायिकों की मान्यता है कि शब्द और अर्थ का संबंध अविनाभाव संबंध है. अविनाभाव का तात्पर्य है- एक के बिना दूसरा नहीं हो सकता । यदि शब्द नहीं है तो अर्थ भी नहीं है . इसी प्रकार अर्थ के अभाव में शब्द का भी अभाव होगा । इस विचारधारा के अनुसार शब्दार्थ ईश्वरीय इच्छा पर निर्भर नहीं होता. नव्य न्याय के अनुसार शब्द और अर्थ का संबंध इच्छा मात्र पर निर्भर है , चाहे वह ईश्वर की इच्छा हो या मनुष्य की । शब्द में निहित अर्थ की शक्ति अजानिक संकेत आधुनिक संकेत दोनों में पाई जाती है है । आधुनिक संकेत शब्द का कृत्रिम अर्थ है । जब वैज्ञानिक, दार्शनिक या गणितज्ञ किसी शब्द की रचना करते हैं उसमें निहित अर्थ कृत्रिम कहलाता है ।

पतंजलि:

पतंजलि ने शब्द और अर्थ को अलग नहीं माना बल्कि दोनों में तादात्म्य माना है । महाभाष्य में कहा गया है कि" जो शब्द है वही अर्थ है और जो अर्थ है वही शब्द है"। इस प्रकार पतंजलि के अनुसार शब्द वही है जो अर्थवान है क्योंकि अर्थ में शब्द और शब्द में अर्थ निहित होता है।

मीमांसा :

प्रभाकर मीमांसा के अनुसार शब्द की शक्ति या वृत्ति दो प्रकार की होती है- आनुभविक और स्मारिका । 'आनुभविक 'मूल वृत्ति वह है जो शब्द को अर्थ प्रदान करती है| यह वृत्ति प्रत्यक्ष या अनुभव पर आधारित होती है । 'स्मारिका 'मूल वृत्ति वह है जो स्मृति जन्य वस्तुओं को निर्देशित करती है| अर्थात स्मृति पर आधारित शब्द वृत्ति स्मारिका कहलाती है । वस्तुत स्मृति का आधार भी अनुभव है . नास्तिक संप्रदायों में चार्वाक दर्शन अनुभव पर आधारित ज्ञान को सत्य मानता है लेकिन वह स्मृति को स्वीकार नहीं करता है। चार्वाक दर्शन के अनुसार भी शब्द और अर्थ का संबंध अनुभवजन्य है. कुमारिल के अनुसार शब्द और अर्थ में न तादात्म्य का संबंध है न भेदाभेद का संबंध. कुछ मीमांसकों ने शब्दार्थ को शब्द से पृथक माना है इस प्रकार मीमांसा दर्शन में शब्दार्थ संबंध में भिन्न-भिन्न विचार पाए जाते हैं।

जैन:

मीमांसको की ही भांति जैन दर्शन भी शब्द और अर्थ को स्वतंत्र मानते हुए उनमें भेद का संबंध स्वीकार करता है .बौद्ध दर्शन का विचार इस संबंध में अनूठा है वह शब्द की मूल प्रवृत्ति को 'अपोह' की संज्ञा देता है । अपोह का तात्पर्य 'नहीं नहीं ' से है. उदाहरण के लिए गाय का अर्थ वह पशु है जो'अ गाय नहीं है' । 'अ ' का अर्थ नहीं होता है । इस प्रकार शब्द और अर्थ का संबंध निषेधात्मक होता है जिसेअतद्व्व्यावृति या तद्भिन्नाभिन्नात्व कहा जाता है ।

 

वैयाकरणों की दृष्टि में शब्दार्थ संबंध निषेधात्मक नहीं होता है । बल्कि वाचक वाच्य संबंध के रूप में शब्द और अर्थ एक दूसरे से संबंधित होते हैं । जिस शब्द से बिना किसी व्यवधान के अर्थ या संकेत का ग्रहण हो वही बोधक शब्द 'वाचक' कहलाता है तथा उस संकेत द्वारा निर्देशित अर्थ को' वाच्य' कहा जाता है ।

 

पतंजलि ने भी शब्द को संकेत मात्र माना है. शब्द एक संकेत है जो किसी पदार्थ अथवा वस्तु को सूचित करता है ।जैन बौद्ध और वैशेषिक दर्शन के अनुसार वाचक- वाच्य सम्बन्ध वस्तुत व्यापक- व्याप्य संबंध है । यह संबंध हेतु और साध्य के बीच पाया जाता है । जिस प्रकार हेतु से साध्य का निगमन होता है उसी प्रकार वाचक से वाच्य निगमित होता है । वाचक शब्द है ,जो हेतु है और वाच्य अर्थ है ,जो साध्य के समान है । किंतु न्याय दर्शन के अनुसार अनुमान में हेतु और साध्य में व्याप्ति संबंध पाया जाता है. यह संबंध अनिवार्य और अविनाभावसंबंध है । किंतु वाचक वाच्य में व्याप्ति संबंध नहीं पाया जाता । यदि ऐसा होता 'भोजन' शब्द कहते हैं हमारे मुंह में 'भोजन आ जाता. 'आग 'शब्द कहते ही हमारे आसपास आग लग जाती. रेलगाड़ी कहते ही रेलगाड़ी आकर खड़ी हो जाती । जब हम रेलगाड़ी, भोजन आदि शब्दों का उच्चारण नहीं करते हैं तब भी ये वस्तुऐ कहीं ना कहीं मौजूद होती हैं। यदि कहा जाए 'घड़ा नहीं है' तो इस वाक्य में घड़ा के नहीं होने का बोध मात्र शब्द तक ही सीमित है ना कि वस्तु के रूप में अनुपस्थिति का बोध होता है । इसका मतलब है और अर्थ के बीच व्याप्त और अनिवार्य संबंध नहीं होता, और इसलिए शब्दार्थ को अनुमान की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता ।वाचक वाच्य संबंध व्याप्ति संबंध नहीं बल्कि शब्दार्थ संबंध ही है । वाचक सूचक या निर्देशक है जो शब्द है तथा वाच्य शब्द का अर्थ है ,जो वस्तु है । इस प्रकार और अर्थ का संबंध प्राकृतिक नहीं है जैसा की वैयाकरणों की मान्यता है।

 

संकेत के प्रकार--

हमने देखा है कि शब्द वह संकेत है जो साक्षात रूप से अर्थ को अभिव्यक्त करता है । जैसे -कलम । कलम वह शब्द है जो अर्थ को अभिव्यक्त करता है कि कलम एक ऐसी वस्तु है जिससे लिखने का कार्य किया जाता है । 'कलम' शब्द लिखने का कार्य करने वाली वस्तु का बोधक होने से वस्तु का संकेत मात्र है.

भारतीय दार्शनिकों की दृष्टि में संकेत दो प्रकार के होते हैं - अजानिक और आधुनिक । अजानिक संकेत वह है जिससे किसी शब्द के प्रचलित या परंपरागत अर्थ का बोध होता है. यह अर्थ काल की सीमा में बंधा नहीं होता. इसे अनादि कहा जाता है .जैसे- गाय , कुर्सी , पुस्तक आदि ऐसे शब्द है जिनके अर्थ का आरंभ कोई नहीं जानता. इसलिए इनके अर्थ अनादि संकेत है . अजानिक शब्द का अर्थ ही है जिसे जाना नहीं जाए, जिसके प्रादुर्भाव को जानना असंभव है । यह अनादि ,अनंत और कालातीत है. इसे नित्य और प्राकृतिक कहा गया है. न्याय दर्शन, मीमांसा दर्शन और व्याकरण दर्शन शब्द को अजानिक संकेत के रूप में स्वीकार करते हैं ।

आधुनिक संकेत वह हैजो किसी व्यक्ति द्वारा किसी समय में निर्धारित अर्थ प्रदान किया जाता है । अर्थात कृत्रिम अर्थ है जो देश और काल में बंधा होता है .उदाहरण के लिए किसी बच्चे के जन्म पर माता पिता एक नाम रखते हैं जो नाम उसे किसी समय और स्थान में दिया जाता है । दार्शनिकों और वैज्ञानिकों द्वारा प्रयोग किए जाने वाले शब्द क्रीम है क्योंकि शब्द के रचनाकार वे स्वयं होते हैं और उनमें आवश्यकतानुसार परिवर्तनहोता रहता है इस प्रकार आधुनिक के संकेतअनित्य नवीन और कृत्रिम होते हैं. मीमांसा दर्शन और व्याकरण दर्शन आधुनिक संकेत को नहीं मानता जबकि न्याय दर्शन , जैन दर्शनऔर बौद्ध दर्शन आधुनिक संकेत के समर्थक हैं .बौद्ध दर्शन अजानिक संकेत को नहीं मानता किंतु न्याय( नव्य न्याय) और जैन दर्शन दोनों ही संकेतों को स्वीकार करते हैं.

समाप्त



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