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Asst. Professor (HoD)

Blog image DR. ABHA JHA Shared publicly - May 6 2020 10:33PM

Study material on Satkaryavad of sankhya philosophy


सांख्य दर्शन में कार्य कारण सिद्धान्त( सत्कार्यवाद):

 Dr.Abha Jha
Asst. Prof. & H.O.D.

P.G.Dept. of Philosophy, DSPMU, Ranchi


सांख्य दर्शन भारत वर्ष की आस्तिक विचारधारा का प्राचीनतम दर्शन है ।सांख्य दर्शन का उल्लेख महाभारत ,रामायण,श्रुति स्मृति और पुराणों में प्राप्त होता है ।सांख्य दर्शन के प्रवर्तक महर्षि कपिल माने जाते हैं ।सांख्य दर्शन के सिद्धान्त यत्र तत्र बिखरे हुए थे जिन्हें सुसंगत तथा वैज्ञानिक ढंग से व्यवस्थित करके महर्षि कपिल ने सांख्य दर्शन का प्रणयन किया ।कहा जाता है कि महर्षि कपिल ने सांख्यसूत्र एवं तत्वसमास नामक ग्रंथों की रचना की थी किन्तु आज ना तो महर्षि कपिल के विषय में प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध है और न उनके द्वारा रचित ग्रंथ ही उपलब्ध हैं। महर्षि कपिल की शिष्य परंपरा में आसूरि और पंचशिख नामक आचार्यों का नाम आता है ।इन्होंने सांख्य दर्शन के सिद्धान्तों को सरल और सुबोध रूप में समझाने के लिए ग्रंथों की रचना की थी किन्तु उनके ग्रंथ भी उपलब्ध नहीं है वर्तमान युग में सांख्य दर्शन के प्रामाणिक ग्रंथों में ईश्वरकृष्ण की सांख्यकारिका का ही उल्लेख आता है ।ईश्वर कृष्ण ने सांख्यकारिका केए 72 श्लोकों में सांख्य दर्शन के तत्वों का प्रतिपादन किया है । कालांतर में इस पर अनेक भाष्य लिखे गए जिन से इस दर्शन के सिद्धांतों पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है i


सांख्य दर्शन के संबंध में सर्वप्रथम यह प्रश्न उठता है कि इसका नाम सांख्य क्यों पड़ा? इस विषय में विद्वानों के दो दृष्टिकोण हैं । प्रथम दृष्टिकोण के अनुसार इसमें 24 तत्वों की विवेचना होने के कारण इसे सांख्य दर्शन कहते हैं ।24 तत्वों के साथ जब पुरुष को शामिल किया जाता है तो तत्वों की संख्या २५ हो जाती है ।अतः इस दर्शन में सृष्टि के पच्चीस तत्वों का विवेचन प्राप्त होता है , इसलिए इसे सांख्य दर्शन कहते हैं ।अर्थात् तत्वों की प्रामाणिक एवं वैज्ञानिक गणना का आधारभूत शास्त्र होने के कारण इसे सांख्य दर्शन कहा गया।विद्वानों के दूसरे दृष्टिकोण के अनुसार इस दर्शन में सम्यक ज्ञान की विवेचना की गई है इसलिए कपिल द्वारा रचित यह दर्शन सांख्य दर्शन कहलाता है।व्युत्पत्ति के आधार पर इसका अर्थ है सम्यक ख्यानम्’-अर्थात सम्यक ज्ञान । सांख्य दर्शन द्वारा प्रतिपादित सम्यक ज्ञान पुरुष और प्रकृति का भेद ज्ञान है ।सांख्य दर्शन से यह विवेक बुद्धि मिलती है इसी कारण इसका नाम सांख्य पड़ा ।


सांख्य दर्शन एक द्वैतवादी दर्शन है जिसमें दो स्वतंत्र तत्व स्वीकार किये गये हैं -पुरुष और प्रकृति । पुरुष सांख्य दर्शन का आत्म तत्व है जो शरीर ,इन्द्रिय ,मन ,बुद्धि आदि से भिन्न है।वह चैतन्य स्वरूप है ।सांख्य दर्शन का दूसरा तत्व प्रकृति है जिसे त्रिगुणात्मिका कहा गया है और जो इस विश्व का मूल कारण है ।सांख्य दर्शन भारतीय दर्शन की प्रथम ऐसी विचारधारा है जो एक मूलभूत कारण से ही संपूर्ण सृष्टि का विकास प्रस्तुत करती है ।सांख्य दर्शन प्रकृति के विकासवाद के मूल में सत्कार्यवाद के सिद्धान्त को मानता है जिसके अनुसार सम्पूर्ण सृष्टि अपने उद्भव के पूर्व प्रकृति में ही अव्यक्त रूप में अवस्थित है । सांख्य दर्शन एक निरीश्वरवादी दर्शन है जो ईश्वर की सत्ता के विषय में मौन है।

कार्यकारणवाद : कार्य कारण का सिद्धान्त ही कार्य कारणवाद कहलाता है ।यह सिद्धांत सांख्य दर्शन का ही नहीं बल्कि समस्त भारतीय दर्शन का मूलभूत सिद्धांत है ।सांख्य दर्शन के इस कार्यकारणवाद पर उसका प्रकृतिवाद निर्भर है ।प्रश्न है कि कारणतावाद क्या है ?कारणतावाद कार्य कारण के संबंध का सिद्धांत है ।इस सिद्धांत के अनुसार कोई भी कार्य बग़ैर कारण के नहीं होता ।प्रत्येक कार्य के पीछे कोई न कोई कारण अवश्य होता है ।कोई भी कार्य या घटना अकारण या अकस्मात नहीं होती। इस प्रकार कार्य कारणवाद का यह मूल प्रश्न है कि क्या कार्य उत्पत्ति के पूर्व भी अपने कारण में विद्यमान् रहता है अथवा नहीं? जो यह मानते हैं उन्हें सत्कार्यवादी और जो यह नहीं मानते उन्हें असत्कार्यवादी कहा जाता है । इस प्रकार असतकार्यवाद के अनुसार कार्य अपनी उत्पत्ति के पूर्व असत है अर्थात अपने कारण में विद्यमान् नहीं है। कार्य की सत्ता उसकी उत्पत्ति से ही आरंभ होती है । इसी मान्यता के कारण असत कार्य वाद को आरंभवाद भी कहा जाता है इस सिद्धांत के अनुसार कार्य की सत्ता उसकी उत्पत्ति से ही आरंभ होती है।कार्य एक नवीन सृष्टि है , एक नवीन आरंभ है। यदि घड़ा मिट्टी में , कपड़ा धागों में तथा दही दूध में पहले से ही मौजूद है तो कुम्हार को मिट्टी से घड़ा बनाने के लिए परिश्रम की क्या आवश्यकता है? और फिर धाग़े ही कपड़े का काम क्यों नहीं करते और दूध का स्वाद दही जैसा क्यों नहीं होता ? दर्शन के कुछ संप्रदाय वैशेषिक और नैयायिक इत्यादि असत्कार्य वाद या आरंभवाद को मानते हैं । इसके विपरीत सत्कार्यवाद यह मानता है कि कार्य उत्पत्ति के पूर्व भी अपने कारणों में विद्यमान् रहता ।इस मान्यता के कारण ही इस सिद्धांत का नाम सत कार्य बाद है अर्थात कार्य कारण में बीज रूप से अंतर्निहित रहता है तथा कारण कार्य में स्वभाव रूप से विद्यमान् रहता है । अर्थात कार्य कोई नवीन सृष्टिनहीं है ।उत्पाद का अर्थ नवीन उत्पत्ति तथा विनाश का अर्थ सर्वथा विनाश नहीं है।उत्पत्ति का अर्थ है अभिव्यक्त होना और विनाश का अर्थ है व्यक्त हुए कार्य का पुनः अपने कारण में तिरोहित या विलीन हो जाना । सत्कार्यवाद के अनुसार कार्य अपने कारण में सूक्ष्म रूप में मौजूद रहता है,कारण ही कार्य के रूप में परिवर्तित होता है । कारण और कार्य एक ही वस्तु के दो रूप हैं ।कारण की अवस्था अव्यक्त रूप है तथा कार्य की अवस्था व्यक्त रूप है।

सतत्कार्यवाद सांख्य दर्शन का अत्यंत ही सूक्ष्म एवं वैज्ञानिक सिद्धांत है ।यह सिद्धांत सांख्य दर्शन की एक प्रमुख मान्यता है एवं इसका दूसरा नाम प्रकृतिपरिणामबाद है इसके अनुसार प्रकृति प्रलय की अवस्था में बीज रूप से अथवा अव्यक्त रूप से समस्त सृष्टि को अपने में लीन कर लेती है और सर्ृजन की अवस्था में कार्य रूप में उसे व्यक्त करती है। अर्थात कार्य नई सृष्टि नहीं है ।वह कारण की ही कार्य रूप मी अभिव्यक्ति है।सांख्य दर्शन ने सत्कार्यवाद की सिद्धि के लिए निम्नलिखित तर्क दिए हैं:

असदकरणात् उपादानग्रहणात् सर्वसंभवाभावात् ।
शक्तस्यशक्यकरणात् कारणभावाच्च सत्कार्यम् ।।

१.असदकरणात्- सांखय की इस युक्ति के अनुसारअसत् से असत् ही उत्पन्न हो सकता है ,उससे किसी वस्तु की उत्पत्ति संभव नहीं है । यदि उत्पत्ति के पूर्व कारण में कार्य की सत्ता न मानी जाए तो वह असत् होगा।अगर वह असत है तो वह आकाश कुसुम या खरहे के सींग की भांति असत् होगा।और उसकी उत्पत्ति कभी भी किसी तरह संभव नहीं है।Nothing comes out of nothing.भगवतगीता में भी कहा गया है -
‘नासतो विद्यते भावो ना भावो विद्यते सत:’।

अर्थात असत् का भाव नहीं होता और सत् का अभाव नहीं होता। बालू में तेल असत् है अतः किसी भी प्रयास से बालू से तेल प्राप्त नहीं हो सकता ।तेल तिल को पेर कर ही निकाला जा सकता है।इसी प्रकार हज़ारों कारीगर मिलकर भी आकाश में महल नहीं बना सकते।इसका यही तात्पर्य है कि यदि कारण में कार्य का अभाव है तो कारण से कभी भी कार्य की उत्पत्ति संभव नहीं है ।अर्थात किसी कारण से ही उससे संबंधित कार्य इसलिए उत्पन्न होता है क्योंकि वह उसमें अपनी उत्पत्ति के पूर्व अव्यक्त रूप में विद्यमान् रहता है।


२.उपादान ग्रहणात् - प्रत्येक कार्य अपने उपादान कारण या समवायी कारण से संबंधित रहता है इसलिए उससे उसकी उत्पत्ति होती है ।यदि कारण में कार्य की सत्ता न हो तो कार्य का संबंध अपने उपादान कारण से ही संभव नहीं होगा क्योंकि असत से सत की अभिव्यक्ति संभव नहीं है। उपादान या समवायी कारण के बिना कार्य हो ही नहीं सकता ।मिट्टी के बिना घड़ा ,धागे के बिना कपड़ा,तिल के बिना तेल की कल्पना नहीं की जा सकती है। हम देखते हैं कि घड़ा मिट्टी से ही बनता है,कपड़ा धागों से ही बनता है और दही दूध से ही बन सकता है अर्थात विशेष कार्य ये विशेष कारणों से ही पैदा होते हैं यही उपादान नियम है ,जिससे यह सिद्ध होता है कि कार्य अपनी उत्पत्ति से पहले अव्यक्त रूप में अपने कारण में विद्यमान् रहता है ।इस प्रकार इस युक्ति से कार्य की अपने उपादान कारण में उपस्थिति सिद्ध होती है ।


३.सर्वसंभवाभावात्- इसके अनुसार किसी भी कारण से किसी भी कार्य की उत्पत्ति संभव नहीं है ।हम देखते हैं कि प्रत्येक कारण से प्रत्येक कार्य का उत्पादन संभव नहीं होता ।इसका अर्थ है कि कारण कार्य को तभी उत्पन्न करता है जब वह उससे संबंधित होता है।अर्थात कार्य अपने कारण में पूर्व ही विद्यमान् रहता है।


४.शक्तस्य शक्य करणात्- सांख्य दर्शन के अनुसार समर्थकारण ही संबंधित कार्य की उत्पत्ति कर सकता है।शक्य कार्यकी उत्पत्ति शक्त कारण से ही संभव है ।शक्त कारण वह है जिसमें विशेष कार्य उत्पन्न करने की शक्ति हो।इसका मतलब है जिस कारण में जिस किसी कार्य को उत्पन्न करने की क्षमता या शक्ति होती है उस कारण से वही कार्य उत्पन्न हो सकता है ।यदि ऐसा नहीं होता तो पानी से दही ,बैल से दूध और बालू से तेल प्राप्त हो जाता ।इससे यह सिद्ध होता है कि कार्य अपनी अभिव्यक्ति से पूर्व कारण में मौजूद रहता है।


५.कारणभावात्- इस युक्ति के अनुसार कारण और कार्य एक ही सिक्के के दो पहलू है। किसी कार्य की अव्यक्त अवस्था ही उसका कारण है तथा कोई भी कार्य अपने कारण का व्यक्त रूप है । कार्य स्वभावतः अपने कारण से अभिन्न होता है।कपड़ा अपने धागों से भिन्न नहीं है।कारण का जो स्वभाव होता है वहीं कार्य का भी स्वभाव होता है मिट्टी से बने घड़े का स्वभाव मिट्टी जैसा ही होता है अर्थात तात्विक रूप से कार्य कारण अभिन्न हैं ।कारण और कार्य का भेद मात्र व्यावहारिक है।


इस प्रकार इन युक्तियों के द्वारा सांख्य दर्शन में सत्कार्य वाद की सिद्धि की गई है।



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