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Asst. Professor

Blog image DR. JAI KISHOR MANGAL Shared publicly - Apr 14 2020 9:30PM

Semester 4 pape- EC-3


भारतीय साहित्य

डॉ. जय किशोर मंगल 

सहायक प्राध्यापक 

हो भाषा विभाग 

 

वेद:-

                वेद विश्व का सबसे प्राचीन साहित्य है। जो हिन्दु धर्म का सर्वस्व है। भारत की धार्मिकता में जो कुछ भी निष्ठा देखी जाती है उसका मूल स्त्रोत वेद ही है। वेद महर्षियों के द्वारा अनुभव किये गये तत्वों के साक्षात प्रतिपादक हैं। आर्यों की सभ्यता और संस्कृति, समाज तथा धर्म को जानने का एक मात्र साधन यहीं उपलब्ध होता है। धर्म के विकास का पूर्ण निरुपण वेदों के अध्ययन से ही किया जा सकता है। वेद की भाषा सर्वथा प्राचीनतम है।

                ‘वेद’ शब्द संस्कृत भाषा के विद् ज्ञाने धातु से बना है। इस प्रकार से वेद का शाब्दिक अर्थ ‘ज्ञान’ है। इसी धातु से विदित (जाना हुआ), विद्या (ज्ञान), विद्वान (ज्ञानी) जैसे शब्द आये हैं। वेद को ‘त्रयी’ के नाम से पुकारा जाता है। इसका मुख्य कारण इसमें तीन वस्तुएंे मुख्य रूप से पायी जाती हैं- ऋक्, साम और यजुः। पद्य में रचा हुआ वेद मंत्र ऋक् अथवा ऋचा कहलता है। इन ऋचाओं के गायन को ‘साम’ कहते हैं और इन दोनों से पृथव गद्यात्मक वाक्यों को ‘यजुः’ कहते हैं।

अध्ययन की सुविधा के लिए वि़द्वानों ने इसे तीन भागों में विभक्त किया है - 1. संहिता 2. ब्राह्मण 3. आरण्यक तथा उपनिषद

                1. संहिता - मंत्रों के समुदाय का नाम संहिता है। मंत्र किसी देवता विशेष की स्तुति में होने वाले अर्थ को स्मरण कराने वाले वाक्य अथवा शब्दोच्चारण को ‘मंत्र’ कहते हैं। ऐसे मंत्रों के समुदाय ‘संहिता’ कहलाते हैं। वेद में चार संहिता हैं - क. ऋक संहिता ख. यजुः संहिता ग. साम संहिता तथा घ. अथर्व संहिता। इन संहिताओं का संकलन महर्षी वेदव्यास ने यज्ञ की आवश्यकता को दृष्टि में रखकर किया था। ऐसा माना जाता है कि यह ज्ञान (वेद) कारणब्रह्म व विराट पुरूष से श्रुति परमपरा के माध्यम से सृष्टिकर्ता ब्राह्माजी ने प्राप्त किया था। इसके अलावे यह भी मान्यता है कि परमात्मा ने सबसे पहले चार महर्षियों जिनके नाम अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा था के आत्माओं में क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञान दिया । इन महर्षियों ने फिर यह ज्ञान ब्रह्मा को दिया। ब्रह्मा ने यह ज्ञान सुनकर प्राप्त किया। इसलिए इन्हें श्रुति भी कहा जाता है।

                चूंकि प्रारम्भिक वैदिक धर्म में मुर्तियों या मंदिरों का कोई स्थान नहीं था। इस काल में खुले स्थानों में यज्ञ किये जाते थे और हवन के माध्यम से मांस, मदिरा (सोम), दूध, घी इत्यादि का चढ़ावा चढ़ाया जाता था। इस प्रकार के यज्ञ को सम्पन्न करने के लिए चार ऋत्विजों (यज्ञ कराने वाला) की आवश्यकता होती है - होता, अध्वर्यु, उद्गाता तथा ब्रह्मा।

                ‘होता’ शब्द का अर्थ है पुकारने वाला। होता यज्ञ के अवसर पर विशिष्ट देवताओं का मंत्रोच्चारण द्वारा आव्हान करता है। उसके लिए आवश्यक मंत्रों का संकलन जिस संहिता में किया गया है उसका नाम ऋक् संहिता अथवा ऋग्वेद है। ‘अध्वर्यु’ का काम यज्ञों का विधिवत संपादन करना है। उसके लिए आवश्यक मंत्रों का समुदाय यजुः संहिता अथवा यजुर्वेद कहलाता है। ‘उद्गाता’ शब्द का अर्थ उच्च स्वर में गाने वाला होता है। उद्गाता का कार्य ऋचाओं के ऊपर स्वर लगाकर उन्हें मधुर स्वर में गाना होता है। इस कार्य के लिए साम-संहिता अथवा सामवेद का संकलन किया गया है। ‘ब्रह्मा’ नामक ऋत्विग का काम यज्ञ का पूर्ण रूप से निरीक्षण करना है, जिससे यज्ञ में किसी प्रकार की त्रुटि न हो। ब्रह्मा को समग्र वेदों का ज्ञाता होना चाहिए। यज्ञ को सम्पूर्ण रूप से विधिवत् सम्पूर्ण करने के लिए अथर्व संहिता अथवा अथर्ववेद है।

                2. ब्राह्मण - संहिताओं के अनंतर ब्राह्मण गं्रथों का समय आता है। ब्रह्मा का शाब्दिक अर्थ ‘यज्ञ’ है अर्थात् यज्ञ के विषयों का अच्छी तरह से प्रतिपादन करने वाला गं्रथ ही ब्राह्मण गं्रथ है। वेद में वर्णित संहितओं अथवा मंत्रों को सविस्तार व्याख्या करने के लिए ब्राह्मण गं्रथों का निर्माण किया गया है। अर्थात् कहा जा सकता है कि ब्राह्मण वेदों का गद्य के रूप में व्याख्या करने वाला खण्ड है। इसमें गद्य रूप में देवताओं की तथा यज्ञ की रहस्यमयी व्याख्या की गयी है। इनकी वैदिक भाषा वैदिक संस्कृत है। ब्राह्मण अनेख आख्यान, शब्दों की व्युत्पति तथा प्राचीन राजाओं एवं ऋषियों की कथायें है। प्रत्येक वेद के अपने-अपने ब्राह्मण होते हैं। ऋग्वेद के दो ब्राह्मण हैं - 1. ऐतरेय ब्राह्मण तथा 2. कौषीतकि ब्राह्मण। ऐतरेय ब्राह्मण में 40 अध्याय हैं और आठ पंजिचकायें हैं। पांच अध्यायों का एक समूह              ‘पंचिका’ कहलाता है। उसी प्रकार कौषीतकि ब्राह्मण में 30 अध्याय हैं। सामवेद से सम्बद्ध चार ब्राह्मण  ताण्डय, षड्विंश, सामविधान तथा जैमिनीय ब्राह्मण हैं जिनमें ‘ताण्डव ब्राह्मण’ सबसे श्रेष्ठ है। इसके 23 अध्याय हैं। यह अत्यंत विशाल है। इसलिए इसे ‘पंचविश ब्राह्मण’ भी कहा जाता है। यजुर्वेद दो विभागों में विभक्त है- कृष्ण यजुर्वेद तथा शुक्ल यजुर्वेद। कृष्ण जयुर्वेद से सम्बद्ध ‘तैतिरीय ब्राह्मण’ है। शुक्ल यजुर्वेद का ब्राह्मण ‘शतपथ ब्राह्मण’ के नाम से विख्यात है। इसमें एक सौ अध्याय हैं। अथर्ववेद का ब्राह्मण ‘गोपथ ब्राह्मण’ के नाम से जाना जाता है। इसमें केवल दो खण्ड हैं जिनमें पहला में केवल पांच अध्याय एवं दूसरे में केवल छः अध्याय हैं।

                3. आरण्यक तथा उपनिषद - आरण्यक तथा उपनिषद दोनों ही ब्राह्मण गं्रथों के निकटवत्र्ती हैं तथा इन्हें भी हम संहिताओं के व्याख्या के रूप में स्वीकार किया जाता है। ‘आरण्यक’ साहित्य जन-साधारण से दूर जंगल में पढ़े वाले साहित्य है। इसमें यज्ञों के आध्यात्मिक रूप का विवेचन है। ये वानप्रस्थ आश्रम में जीवन बिताने वाले मनुष्यों के लिए हितकर हैं। उपनिषद् का तात्पर्य ब्रह्म ज्ञान से है। जिसका अनुशीलन करने से मनुष्य संसार के प्रपंचों से छुटकारा पाकर अनंत सुख का अधिकारी बनता है। यह वैदिक साहित्य का सबसे अंतीम भाग है। इसलिए इसे ‘वेदान्त’ भी कहा जाता है।

                वेद में चार संहितायें हैं - 1. ऋग्वेद 2. यजुर्वेद 3. सामवेद तथा 4. अथर्ववेद।

1. ऋग्वेद:- ऋग्वेद सनातन धर्म का सबसे आरंभिक स्त्रोत है। ऋग्वेद को इतिहासकार हिन्द-यूरोपीय भाषा-परिवार की अभी तक की उपलब्ध पहली रचनाओं में एक मानते हैं। यह विश्व की उन गं्रथों में से एक है जिनकी मान्यता अब तक समाज में बनी हुई। सनातन धर्म के लोग ऋग्वेद को ही जीवन का मुख्य आधार मानते हैं। संभवतः अध्ययन की सुविधा के लिए ऋग्वेद में दो विभाग उपलब्ध होते हैं। प्रथम में अष्टक, अध्याय तथा सूक्त एवं दूसरे में मण्डल, अनुवाक और सूक्त। पूरा ऋग्वेद आठ भागों में विभक्त है, जिन्हें ‘अष्टक’ कहा जाता है। प्रत्येक अष्टक में आठ अध्याय हैं। इस प्रकार पूरे ऋग्वेद में आठ अष्टक तथा चैसठ अध्याय है। दूसरे विभाग को दस खण्डों में विभाजित किया गया है, जिन्हें ‘मण्डल’ कहते हैं। मण्डल में संगृहीत मंत्र समूहों को ‘सूक्त’ कहा जाता है। इन सूक्तों के खण्डों को ‘ऋचाऐं’ कहते हैं। ऋग्वेद में कुल 1028 सूक्त हैं, लगभग 11 हजार (10,580) मंत्र तथा लगभग चार सौ ऋचाऐं हैं। ये ऋचाऐं अग्नि, वायु, वरुण, इन्द्र, विश्वदेव, मरुत, प्रजापति, सूर्य, उषा, पूषा, रुद्र, सविता आदि देवताओं को समर्पित है। इसमें मनुष्य की मनोकामना पूर्ति हेतु इन देवताओं की महिमा का गान किया गया है। ऋग्वेद में ईश्वर, ज्योतिष, गणित, औषधि, रसायन, प्रकृति, खगोल, भूगोल, धार्मिक नियम, इतिहास, रीति-रिवाज इत्यादि सभी विषयों से संबंधित ज्ञान भरा पड़ा है। इसके अलावे इसमें जल चिकित्सा, वायु चिकित्सा, सौर चिकित्सा, मानस चिकित्सा और हवन द्वार चिकित्सा आदि की भी जानकारी प्राप्त होती है।

2. यजुर्वेद:- यजुर्वेद सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण श्रुति धर्मग्रंथ है। यह चार वेदों में से एक है जिसे ऋग्वेद के बाद दूसरा वेद माना जाता है। मुख्य इसमें यज्ञ के लिए गद्य एवं पद्य मंत्रों का संकलन है जो ‘अध्वर्यु’ नामक ऋत्विज के उपयोग में आते हैं। अध्वर्यु का कार्य यज्ञों का विधिवत सम्पन्न करना होता है। अर्थात् इसका सीधा संबंध यज्ञानुष्ठानों से है। इसलिए कभी-कभी इस वेद को ‘कर्मकाण्डीय वेद’ भी कहा जाता है। इसमें 663 मंत्र पाये जाते हैं। यह गद्यात्मक ग्रंथ है। यज्ञ में कहे जाने वाले इन गद्यात्मक मंत्रों को ‘यजुस’ कहा जाता है। यजुर्वेद में स्वतंत्रा पद्यात्मक मंत्र बहुत कम हैं। अधिकतर पद्यात्मक मंत्रों ऋग्वेद या अथर्ववेद से लिये गये हैं। इस वेद के दो भेद हैं - कृष्णायजुः तथा शुक्ल यजुः। कृष्णयजुर्वेद में छन्दोबद्ध मंत्र तथा गद्यात्मक विनियोगों का मिश्रण है। इसी मिलावट के कारण इसे ‘कृष्णयजुर्वेद’ कहा जाता है। शुक्लजयुर्वेद में केवल मंत्रों का ही संग्रह है, जिसमें विनियोग वाक्य नहीं हैं। यह ब्राह्मण से अमिश्रित होने के कारण इसे ‘शुक्लयजुर्वेद’ कहा जाता है। शुक्लयजुर्वेद की संहिता ‘वाजसनेयी संहिता’ कहलाती है, क्योंकि सूर्य ने वाजी (घोड़े) का रूप धारण कर इसका उपदेश दिया था। इसमें 40 अध्याय हैं, जिनकी रचना विशिष्ट यज्ञों को ध्यान में रखकर की गई हैं। शुक्लयजुर्वेद की दो शाखायें भी मिलती हैं - माध्यन्दिन और काण्व। पहली शाखा उत्तर भारत में तथा दूसरी शाखा महाराष्ट्र में सर्वाधिक प्रचलित है।

                कृष्णायजुर्वेद की भी मुख्यतः चार शाखायें हैं - तैत्तिरीय, मैत्रायणी, काठक तथा कठ-कापिष्ठल। तैत्तिरीय सबसे प्रचलित शाखा है। इसमें सात खण्ड हैं जिन्हें अष्टक या खण्ड कहते हैं। प्रत्येक खण्ड में कुछ अध्याय हैं जिन्हें प्रश्न या प्रपाठक कहते हैं। ये प्रश्न अनेक अनुवाकों में विभक्त हैं। मैत्रायणी और काठक भी तैत्तिरीय से ही मिलती-जुलती हैं कहीं-कहीं क्रम में अंतर देखने को मिलता है। कठ-कापिष्ठल पूर्ण रूप से अब तक उपलब्ध नहीं है।

3. सामवेद:- यज्ञ के समय उद्गाता अर्थात् उच्च स्वर में गाने वाला के द्वारा ऋचाओं के ऊपर गाने के लिए जिस संहिता का संकलन किया गया है, वह सामवेद है। गायन को साम कहा जाता है। साम ऋचाओं पर आश्रित होती हैं, क्योंकि ऋचायें ही गायीं जाती हैं। इसलिए सम्पूर्ण सामवेद में ऋचायें हैं। यह चारों वेदों में आकार की दृष्टि से सबसे छोटा है। इसमें कुल 1875 ऋचायें हैं जिनमें 76 ऋचाओं को छोड़कर बाकी ऋग्वेद से लिये गये हैं। सामवेद संहिता के दो भाग हैं - पूर्वार्चिक और उत्तरार्चिक। पूर्वार्चिक को छन्दः, छन्दसी अथवा छन्दसिका आदि कहा जाता है। इसे अग्नि, इन्द्र, सोम तथा अरण्य संबंधी विषय वस्तु के आधार पर चार पर्वों में विभक्त किया गया है, जिनके नाम क्रमशः आग्नेयपर्व, ऐन्द्रपर्व, पवमान पर्व तथा आरण्य पर्व। दूसरा खण्उ उत्तरार्चिक में विषय के अनुसार कई उपखण्ड हैं जिनमें इन अनुष्ठानों का निर्देश किया गया है - दशरात्र, संवत्सर, सत्र, प्रायश्चित, ऐकाह, अहीन तथा क्षुद्र। पुराणों में सामवेद की सहस्त्र शाखायें होने की जानकारी प्राप्त होती है। परंतु वर्तमान प्रपंच हृदय, दिव्यावदान, चरणव्युह तथा जैमिनि गृहसूत्र को देखने पर तेरह शाखाओं का पता चलता है इनमें से भी मुख्य रूप से तीन शाखायें ही उपलब्ध होती हैं - 1. कौमुथीय 2. राणायनीय और 3. जैमिनीय। ये तीनों क्रमशः गुजरात, महाराष्ट्र तथा कर्नाटक में प्रचलित हैं। सामवेद से सम्बद्ध चार ब्राह्मण - ताण्डय, षड्विंश, सामविधान तथा जैमिनीय ब्राह्मण हैं जिनमें ‘ताण्डय ब्राह्मण’ सबसे श्रेष्ठ है। इसके 23 अध्याय हैं। यह अत्यंत विशाल है। इसलिए इसे ‘पंचविश ब्राह्मण’ भी कहा जाता है। पुराण के अनुसार सामवेद के विभिन्न मंत्रों के विधिवत जाप से रोग व्याधियों से मुक्ति पाया जा सकता है। सामवेद ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग की त्रिवेणी है।

4. अथर्व वेद:- अथर्ववेद हिन्दु धर्म के चारों वेदों में सबसे अंतीम वेद माना जाता है। इसके बावजूद अथर्व वेद को वेद की श्रेणी में गणना नहीं की जाती है। वेद में अथर्व वेद का समावेश नहीं होने के कारण वेद को ‘त्रयी’ कहा जाता है। परंतु परवत्र्ती साहित्य में अन्य तीन वेदों के साथ अथर्ववेद को भी चतुर्थवेद माना गया है। इस वेद को ‘ब्रह्मवेद’ भी कहा जाता है। अथर्व वेद की रचना यज्ञ विधान के लिए न होकर यज्ञ में उत्पन्न होने वाले विघ्नों के निवारण के लिए हुई है। इस वेद के अधिकतर मंत्र ऋग्वेद से लिये गये हैं। इसमें संगृहीत मंत्र आयुवृद्धि, प्रायश्चित और पारिवारिक एकता के लिए तथा दुष्ट पे्रतात्माओं, राक्षसों आदि के निवारण के लिए होती थीं। इसमें आध्यात्मिक भावों का समावेश भी मिलता है। यह वेद अथर्व ऋषि के द्वारा दृष्ट होने के कारण इसे अथर्व संहिता कहते हैं। यह संहिता बीस खण्डों में विभक्त है जिन्हें ‘काण्ड’ कहते हैं। ये काण्ड 34 प्रपाठक, 111 अनुवाक, 731 सूक्त तथा 5849 मंत्रों में संकलित हैं। अथर्ववेद की 9 शाखाओं का उल्लेख मिलता है परन्तु दो शाखायें ही सर्वाधिक प्रचलित है - पिप्पलाद तथा शौनक। पिप्पलाद शाखा के अधिकांश ग्रंथ लुप्तप्राय हैं, केवल प्रश्नोपनिषद ही उपलब्ध है। इसकी दूसरी शाखा शौनक अधिक प्रसिद्ध है।



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