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Asst. Professor

Blog image DR. JAI KISHOR MANGAL Shared publicly - May 16 2020 12:21PM

M.A.Sem-2 (EC-1) लोक साहित्य की अवधारणा


लोक साहित्य की अवधारणा
जय किशोर मंगल ‘हसादः’
सहायक प्राध्यापक
हो भाषा विभाग, डीएसपीएमयू, रांची।
 
        सृष्टि के आरंभिक काल में जब मनुष्य अपना जीवन प्रकृति की गोद में व्यतीत करता था। उस समय प्रकृति की भांति ही उसका आचार-विचार, रहन-सहन, खान-पान आदि सरल, सहज और स्वभाविक था। वह बाह्य आडम्बर और कृत्रिमता से कोसों दूर था। अपनी दैनिक जरूरत की वस्तुएं प्रकृति से प्राप्त करता था। वास्तव में मनुष्य का आदिम जीवन ही लोक साहित्य की मूल आधार भूमि है। आरंभिक काल में मनुष्य का जीवन मूल रूप से अस्तित्व के लिए संघर्षरत था। संघर्ष का कारण अपनी अस्मिता, आत्मरक्षा एवं अस्तित्व की रक्षा करना था। यह संघर्ष एक ओर जीवित रहने की थी तो दूसरी ओर अपनी बुनियादी आवश्यकताओं एवं परंपराओं को विकसित करने तथा उसे बनाये रखने की थी। उनके सामने अनुभव से प्राप्त ज्ञान, भावनायें, उनके विश्वास और आदर्श को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित करने की चुनौती थी। उन्हें चिंता थी कि अपनी विकसित और अर्जित ज्ञान को कैसे संरक्षित किया जाए और अगली पीढ़ी तक कैसे हस्तांतरित किया जाए? मनुष्य के उक्त दोनों ही परिस्थिति ने उनके मानसिक स्थिति को प्रभावित कर रहा था। वह इस बात से बिल्कुल अनभिज्ञ था कि बाह्य संघर्ष और भितरी सरोकार के संदर्भ में उनके जीवन को मूल चुनौती देने वाली प्रमुख सत्ता थी प्रकृति। प्रकृति समय-समय पर सदैव उसके जीवन को प्रभावित करती रहती थी। प्रकृति के साथ जीवन व्यतीत करने के बावजूद वह उसके असीमित शक्ति और रहस्यों से अनजान था। परंतु समय के साथ वह अपनी चेतना को चुनौती देने वाली अदृश्य शक्तियों का अवलोकन करने में सक्षम हो पाया। इसका मूल कारण मनुष्य के मन में सदेव आवेगों का संचार होना था। मनुष्य का मन सदा ही नई-नई चीजों को देखने, पहचानने तथा उसे समझने हेतु सदैव विचलित रहता था। परिणाम स्वरूप उसके मन में राग मूलक और भयमूलक प्रवृत्ति का संचार हुआ। 
        प्रकृति के अवलोकन से जो रूप उसके रागवृत्ति के अनुकूल हुए वे उसे प्रिये लगे। परंतु जीवन को चुनौती देने वाली वैसी शक्ति, प्राणी या जीव-जंतु जो उनके लिए खतरनाक और अनुपयोगी थे उससे उसके मन में डर का संचार हुआ। उदाहरण के लिए पानी बरसा कर सुख प्रदान करने वाले बादल, संरक्षण प्रदान करने वाले पहाड़, भूख मिटाने वाले फल-फूल, कंद-मूल, प्यास बुझाने वाले नदी-झरने तथा आजीविका के लिए आवश्यक संसाधन उपलब्ध करने वाले जंगल उसे प्रिय लगे। परंतु इनका समय-समय पर प्रकट होने वाला विकराल रूप उसे भयावह प्रतीत हुआ। इस प्रकार सुखमय जीवन जीने एवं उसके लिए संघर्ष करने के लिए प्रकृति के जिन रूपों को मनुष्य ने सहयोगी पाया उनके प्रति श्रद्धा और प्रेम की भावना प्रस्फूटित हुई। इसके विपरीत जीवन को चुनौती देने वाले प्रकृति के विराट रूप और जंगली जानवरों के आतंक के कारण मन में भय उत्पन्न हुआ। उसी के अनुरूप मनुष्य ने प्रकृति के विविध रूपों से प्रेम और भय का संबंध विकसित किया। यही श्रद्धा, प्रेम और भय ने मनुष्य में राग और द्वेष उत्पन्न किया। राग और द्वेष के इन दोनों रूपों में मनुष्य की जीवन रक्षा, अस्तित्व, संघर्षमय जीवन और आत्म विस्तार के मूल भाव निहित थे। जो लोक साहित्य के विविध आयाम यथा लोक कथा, लोकगीत, लोक नाट्य, प्रकीर्ण साहित्य, लोकनृत्य आदि के रूप में प्रकृति के साथ मनुष्य के इस राग और द्वेष के संबंधों का सहज अभिव्यक्ति दिखलाई पड़ती है।
        लोक साहित्य का मनुष्य के अस्तित्व और उत्तर जीविता के साथ भी संबंध गहरा है। सभ्यता के आरंभिक काल में अस्तित्व और उत्तर जीविता के लिए मुनष्य के संघर्ष का दो रूप था। एक रूप वह था जिससे उसके जिज्ञासावृत्ति, सौंदर्यबोध और साहसिकता को प्रेरणा मिलती थी। उससे पोषण मिलता था। इस प्रकार के संघर्ष में उसे आनन्द प्राप्त होता था। उसमें रूचि थी। इस रूचि से उत्प्रेरित होकर ही उसने अनेक अविष्कार किये। नये-नये जगहों की खोज की। नये-नये रहस्यों को जाना। प्रतिदिन अपनी आजीविका की खोज करने के लिए दिनचर्या की योजना बनानी आरंभ की तथा अनेक संभावनाओं जैसे शिकार अथवा फल आदि कहां प्राप्त होंगे?, किस दिशा में उपलब्ध होंगे? और किस प्रकार उपलब्ध होंगे? इत्यादि पर विचार किया। इस प्रकार के प्रश्न ने मनुष्य के लिए पर्याप्त अवसर प्रदान किया। इन चीजों से उसकी कल्पना शक्ति प्रखर हुई। उसके संघर्ष का दूसरा रूप अपनी अस्तित्व को बनाये रखने तथा विरोधी शक्तियों यथा पशु-पक्षियों, अन्य मानव समुदायों को पराजित कर उसे अपने वश में करने से संबंधित था। अर्थात् आत्म रक्षा के लिए मनुष्य ने प्रतिरोध और विरोध के उपायों की खोज की। परिणाम स्वरूप विभिन्न प्रकार के औजार और अस्त्र-शस्त्रें का अविष्कार किया। 
      इस प्रकार स्पष्ट है कि मनुष्य अपनी अस्मिता एवं अस्तित्व की रक्षा, प्रेम और भय के अंतर्द्वैन्दता, इच्छाओं, आकांक्षाओं एवं आवश्यकताओं की पूर्ति करने एवं जीवन के विविध रहस्यों को जानने के लिए नित्य नये-नये तरकीब सोचने के कारण निश्चय ही उसकी कल्पना शक्ति प्रखर हुई। जिससे वह विविध प्रकार के उपाय और अविष्कार किये। इन्हीं प्रसंगों से जुड़ी जिजीविषा ने ही लोक साहित्य को जन्म दिया। क्याेंकि दैनिक जीवन के अनुभव और कल्पना शक्ति दोनों ही ऐसे तत्व हैं जो मनुष्य को सहभागिता के लिए प्रेरित करते हैं। आजीविका के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान जाने का अनुभव, तरह-तरह के संकटों का सामना करने के पैंतरे, नये-नये स्थान, वस्तुओं एवं दृश्यों का अवलोकन और नये-नये प्राणियों से सामना होने की घटनाओं के साथ जब जीवन के उतार-चढ़ाव, सुविधाओं और बाधाओं, पाने-खोने, सुख-दुःख, हास-उल्लास, जय-पराजय आदि की कल्पनायें जुड़ी तो अनेक प्रकार की लोक गाथाओं और लोक कथाओं का जन्म हुआ। जीवन के मधुर और कटु अनुभव लोकगीत में ढल गये। संघर्ष से लेकर विजय तक के अनुभव राग, लय और ताल से युक्त हुए तो लोक नाट्यों और लोक नृत्यों का सृजन हुआ। संभवतः विस्तृत आकाश में उमड़ते-घुमड़ते काले-सफेद बादलों को देखकर मनुष्य के मन ने परियों की कल्पना के लिए प्रेरित किया, जिससे परीकथाएं विकसित हुई। इसी प्रकार भयवृत्ति ने पशु-पक्षियों, राक्षसों, भूत-प्रेत, डायन-विषाही आदि की कहानियों को जन्म दिया। भय पर विजय पाने की भावनाओं से शौर्यपूर्ण गाथायें अस्तित्व में आई। रोग और मृत्यु के संबंध में, अदृश्य शक्तियों, कष्ट निवारण, वशीकरण, सम्मोहन, अभीष्ट की प्राप्ति आदि के प्रयास से तंत्र-मंत्र, जादू-टोना, झाड़-फूंक जैसे विद्याओं का जन्म हुआ। संभवतः प्रकृति के विभिन्न उपादानों जैसे- पेड़-पौधे, हवा-पानी, नदी-झरने, पहाड़-पर्वत आदि के प्रति प्रेम और भय की मूल प्रवृत्तियों से ही प्रकृति के प्रति श्रद्धा भाव जागृत हुई होगी। इससे पूजा-पाठ का आरंभ हुआ होगा। आज भी अनेक जनजातीय समुदाय में यह परंपरा देखने को मिलती है। वे पेड़ से फल-फूल, पत्तियां तोड़ने एवं उसे काटने से पूर्व जंगल से अनुमति और पेड़ से क्षमा मांगते हैं। नदी, झरने अथवा अन्य जलाशयों से पानी ग्रहण करने से पूर्व उनसे अनुमति ली जाती है। पर्वतारोहण अथवा जंगल में शिकार करने से पूर्व उसकी विधिवत पूजा की जाती है। इस प्रकार से कहा जा सकता है कि लोक साहित्य की विविध विधाओं के जन्म में मनुष्य और प्रकृति के राग और द्वैषमय संबंध निहित हैं। इन्हें तीन रूपों में देखा जा सकता है। पहला ‘शरीरतोषिणी’ अर्थात् शरीर को पोषण देने से संबंधित था। दूसरा ‘मनोस्तोषिणी’ अर्थात् मन को संतुष्ट प्रदान करने वाले कार्य तथा तीसरा ‘मनोमोदिनी’ अर्थात् मन को उत्साह, हर्ष और आनंद प्रदान करने वाले भाव लोक साहित्य में निहित हैं। संक्षिप्त में कहा जा सकता है कि मनुष्य के पोषण, तोषण और मोदन इन तीन वृत्तियों की लोक अभिव्यक्ति का वाणी रूप ही लोक साहित्य है।
         लोक साहित्य आदिम जीवन से लेकर सभ्यताओं के स्थापना काल तक में अनुभव किये गये ज्ञान का संचित भंडार है। लोक साहित्य में निहित इन ज्ञान और अनुभवों को सम्पूर्ण समुदाय ने अपनाया। यह संचित ज्ञान मौखिक रूप से हस्तांतरित होते हुए सदैव उनके साथ रहा। हस्तांतरण के दौरान इसमें लगातार नये-नये तथ्य, ज्ञान, अनुभव, विचार आदि जुड़ता गया और यह अथाह सागर की भांति विशाल रूप धारण कर लिया। इसमें मानव जीवन के जन्म से लेकर मृत्यु तक ही सम्पूर्ण अध्याय समाहित है। अर्थात् लोक साहित्य आदिकाल से लेकर अब तक की उन सभी प्रवृत्तियों का प्रतीक है, जो मानव स्वभाव के अंतर्गत आती है। उनकी यह स्वभाव अत्यंत सरल और सहज होता है। इसमें कोई बनावट नहीं होती। इसमें सामान्य जन की अनुभूतियों, भावनाओं एवं विचारों आदि की सहज और स्वभाविक अभिव्यक्ति है।
लोक साहित्य की अपनी विशिष्टता है। लोक संस्कृति का जैसा सचिव चित्रण इस साहित्य में दृष्टिगत होती है, वह अन्यत्र नहीं है। लोक साहित्य का भाव सम्पूर्ण लोक की मंगल कामना के रूप में अलंकृत होती है। इसमें जन मानस की भावनाओं में, उनके चेतनाओं में जड़-पदार्थ भी जीवित हो उठते हैं। सम्पूर्ण वसुंधरा के जीव-जंतु मानव की भाषा बोलने लगते हैं। इस संबंध में डॉ- सत्या गुप्ता का कहना है कि - ‘‘लोक साहित्य में ऐसा समाजवाद है, जहां ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ का सर्वोच्च उदाहरण है। वहां जड़-चेतन, देवी-देवता, मनुष्य-दानव सब ही एक तल पर आ जाते हैं।’’ लोक साहित्य अनेकों भाषाओं एवं संस्कृतियों में अलग-अलग होने के बावजूद भी इसके मूल भाव तत्व में कोई परिवर्तन नहीं होता। यह अनेकता में एकता की भावना से युक्त होता है।
 
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Comments (1)
user image NITIN KUMAR VERMA Shared publicly - 18-11-2020 17:26:20

Bahut hi aachi notes sir g....... hm M.A khortha SEM 2 SE hai..... Thank You sir G..........